ये अपना रिश्ता भी न
सच बड़ा ही अलग सा है ,
अपने बारे में जब भी सोचा
तो तुम बस तुम दिख जाते हो ,
तुम को जब भी जानना चाहा
तो आईना बन मैं ही दिख जाती हूँ ,
सूरज की तीखी चमक हो
या चाँद की स्निग्ध शीतलता ,
परछाँई सा रच - बस कर
एक दूजे की धड़कन बन जाते हैं ,
अपने हर सवाल का
अपनी हर उलझन का
हर हल एक दूजे में ही पा जाते हैं
इस रिश्ते को क्या कहूँ
आईना और परछाँई का
परछाँई के आईने का या
आईने की परछाँई का रिश्ता …… निवेदिता
बहुत सुंदर ..... समझकर भी समझना मुश्किल.... :)
जवाब देंहटाएंक्या बात है.... रिश्तों में ऐसी ही आपसी समझ और स्वीकार्यता होनी चाहिये :)
जवाब देंहटाएंकोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति ..
जवाब देंहटाएंवाह...
जवाब देंहटाएंक्या बात है..
सुन्दर एहसास..
stay blessed!!
anu
प्रेम गली अति साँकरी, जा में दो न समाए... एक में दूसरा नहीं और दूसरे में पहला नहीं... बस एक में एक दिखाई देता है!! सच्चे रिश्तों की सच्ची कविता!! बहुत प्यारी!!
जवाब देंहटाएंएक अजब सा, बस।
जवाब देंहटाएंस्वयं मे स्वयं की पहचान ...स्वयं के विस्तार में स्वयं का संकुचन ,या स्वयं का शून्य ...!!...सुंदर रचना निवेदिता जी !!
जवाब देंहटाएंसुन्दर भाव से समाहित रचना .....!!
जवाब देंहटाएंआइना समझो या परछाई , ऐसे ही आमने सामने भी , भीतर भी !
जवाब देंहटाएंसुन्दर !
बहुत ही सुन्दर,प्यारी रचना..
जवाब देंहटाएंमनभावन...
:-)
बिंब-प्रतिबिंब --रिश्तों का रहस्य है यही !
जवाब देंहटाएंबेहद गहरे अर्थों से लबरेज़ रचना..
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