जब पढती थी ,तब अपनी कामवाली को अकसर गुनगुनाते हुए सुनती थी "रेलिया बैरिन पिया को लिये जाए रे …… " मैं उसको बहुत छेड़ती थी कि ऐसी कैसी रेल जो तेरे पिया को ले उड़ती है , तब वो भी थोड़ा हँसती थोड़ा खिसियाती कहती ,"पूछूँगी दीदी , कैसे ले जाती है "…… लगता है उस ऊपर वाले ने उसकी बात को कुछ अधिक ही गम्भीरता से ले लिया (
यहाँ तो सूरज चाचू अपनी उनींदी सी आँखें मल रहे होतें हैं कि पिया को ले जाने वाले कारक पंक्तिबद्ध होने लगते हैं ……. सबसे पहले तो मुआ पेपरवाला पेपर दे जाता है और वो भी एक नहीं दो - दो ,थोड़ा आगे बढ़ते ही फिर से पलट वापस कर आ पूछ लेता है ," भईया जी , ई वाली मैगजीन लेंगे ...." तुरंत ही पेपर और पत्रिकाओं को सम्हालते हुए पतिदेव सामने रहते हुए भी गायब हो जाते हैं …….
पेपर में ध्यान लगे होने से गरमागरम चाय पर तो पाला पड़ना ही था …… गर्म और अच्छी सी चाय की पुकार पर थोड़ी सी आशाएं जागृत होतीं हैं कि अब तो अपनी बात भी सुनी जायेगी ,पर .……और भी बैरी हैं भई .…
अब तक तो फ़ोन , मोबाइल भी और जमीनी भी ……. अब फोन हाथ में आते ही नेट की याद आना तो एक सहज और बड़ी ही सामान्य सी क्रिया है …..… थोड़ा ब्लॉग और बहुत सारा फेसबुक पर नितांत आवश्यक (?) काम निबटाया जाता है …..... अब फोन पर अक्षर थोड़े छोटे (?) दिख रहे थे , तो डेस्कटॉप तक पहुँचने का नितांत जिम्मेदारी भरा जीवनदायी कदम उठाना मजबूरी हो जाती है …… कितने बड़े - बड़े त्याग करने पड़ते हैं …… बड़ी ही कठिन योग - साधना होती है ,अगली प्रक्रिया कानों तक निरंतर दस्तक देती घंटी की आवाज़ को नज़रअंदाज़ करना और वो भी उस परिस्थिति में जब बीबी घंटी से भी तेज़ और तीखी आवाज़ में एहसास दिला रही हो ....… पर ये नेटवा बैरी कुछ सुनने दे तब न (
( अमित जी अपने बक्से ,बोले तो डेस्कटॉप के साथ )
फिर सोचा कि एक आदर्श भारतीय नारी की तरह अपने "पतिदेवता" की चाहत को ही अपना भी धर्म बना लिया जाए ,बस तभी से हम भी कोशिश करने लगे नेटवा बैरी से दोस्ती करने की ,पर उन की नेट से दोस्ती के एकाधिकार के सामने हम अल्पमत क्या किसी भी मत में नहीं रहे ....… चलिए अपनेराम अपनी उस पुरानी कामवाली को याद करते हुए संगीत का ही अभ्यास कर लेते हैं ....… अपने उसी पुराने गीत के साथ "नेटवा बैरी पिया को लिये जाये रे ....... निवेदिता
( अमित जी अपने बक्से ,बोले तो डेस्कटॉप के साथ )
फिर सोचा कि एक आदर्श भारतीय नारी की तरह अपने "पतिदेवता" की चाहत को ही अपना भी धर्म बना लिया जाए ,बस तभी से हम भी कोशिश करने लगे नेटवा बैरी से दोस्ती करने की ,पर उन की नेट से दोस्ती के एकाधिकार के सामने हम अल्पमत क्या किसी भी मत में नहीं रहे ....… चलिए अपनेराम अपनी उस पुरानी कामवाली को याद करते हुए संगीत का ही अभ्यास कर लेते हैं ....… अपने उसी पुराने गीत के साथ "नेटवा बैरी पिया को लिये जाये रे ....... निवेदिता
अमितजी तो उत्सुक और अच्छे छात्र की तरह वेब अध्ययन में व्यस्त हैं।
जवाब देंहटाएंनेटवा बैरी पिया को लिये जाये रे...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST - आँसुओं की कीमत.
अरे क्या सही बात कह दी !!! आपने दी ...यह नेट ही मुआ सारे फसाद कि जड़ है। गले की हड्डी की तरह न निगलते बने न उगलते बने ;-) :))
जवाब देंहटाएंहम आह भी करते हैं तो हो जाते हैं बदनाम ,
जवाब देंहटाएंवह क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती ।
अब का कहें ... :)
जवाब देंहटाएं:-)
जवाब देंहटाएंno comments !!
anu
ह्म्म्म! तो घर के इस कोने मे फ़िट किया है अमित जी को .... :-)
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार (22-02-2014) को "दुआओं का असर होता है" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1531 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा - मंच में सम्मिलित करने के लिये आभार !!!
हटाएंhaha...:-)
जवाब देंहटाएं:) samjh sakti hun.....
जवाब देंहटाएंही ही...
जवाब देंहटाएं:):) वैसे ये बात यहाँ उलटी है . नेट पर मैं ही ज्यादा रहती हूँ :)
जवाब देंहटाएंअब हम कुछ नहीं बोलेंगे... आपकी भाभी जी भी यही कहती हैं कि एक तो हफ्ते में डेढ दिन के लिये आते हैं और यहाँ भी मेरी सौतन आपका पीछा नहीं छोड़ती!
जवाब देंहटाएंहाहा.... यहां हम दोनों एक -दूसरे के लिये यही गा सकते हैं :) वजह, दोनों सुबह पेपरों में व्यस्त होते हैं, थोड़ी देर देर बाद नेट पर और फिर अपने-अपने ऑफ़िस में :) :)
जवाब देंहटाएं:) बैरी होकर भी मन को लुभाता है न
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है
:) बैरी होकर भी मन को लुभाता है न
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है