रविवार, 17 अप्रैल 2016

पूर्ण विराम .....



" पूर्ण विराम "  ... ये ऐसा चिन्ह है जो वाक्य की पूर्णता को दर्शाता है  । लगता है शायद उस स्थान पर आकर सब कुछ समाप्त हो गया है । यदयपि उन्ही बातों को शब्दों के मायाजाल से सजा कर कुछ अलग - अलग रूप देकर अपने कथ्य को थोड़ा विस्तार देने का प्रयास तब भी होता रहता है । 

एक सामान्य जीवन भी ऐसा ही होता है । जब हम छोटे होते हैं तब हमारे अभिभावक हमारी ऊँगली थाम कर हमको चलना सिखाते हैं - शिक्षा के द्वारा और अपने संस्कारों के भी द्वारा । अक्सर वो अपने अपूर्ण सपनों को हमारी पलकों में सजा हमारे जीवन का उद्देश्य बना देते हैं । हम भी सहज भाव से उनको अपना मान पूरे मनोबल से साकार करने में जुट जाते हैं । कभी अपने असफल रह जाने पर ,एक परंपरा की तरह ,उस सपने को अपनी संतति के पलकों तले रोप देते हैं ,और फिर जो हमने किया था वही हमारी अगली पीढ़ी करने लग जाती है । इस तरह से लगता है कि हम पूर्णविराम के बाद बारम्बार हम चेहरे बदल बदल कर भी वही कहते और करते रह जाते हैं  ..... 

वैसे यहाँ तक भी पूर्णविराम के बाद भी जीवन जीवित लगता है । जब अभीष्ट मिल जाता है ,तब उस पल वाकई जीवन पूर्णविराम को प्रतिबिम्बित करता लगता है । जैसे लगता है कि अब करने को कुछ बचा ही नहीं । जैसे एक नशे की मनःस्थिति में जीवन बीतता गया कि अभी बच्चों को शिक्षित करना है ,अभी संस्कार देने हैं ,अभी समाज से उनका परिचय कराना है और सबसे बढ़कर उनकी पहचान को दृढ़ता देना है । सीधे शब्दों में कहूँ तो बस ये लगता है कि उनके हर कदम पर और जब भी वो पलट कर पीछे देखें तो उनको एक आश्वस्ति का बल देना है कि वो अकेले नहीं है अपितु दिखे या न दिखे हम हमेशा उनके साथ हैं । 

इतना सब होने के बाद का पल ,लगता है जीवन के वाक्य पर पूर्णविराम लग जाता है । एक विचित्र सी मन:स्थिति होती है जैसे सब कुछ रीत गया और गागर खाली हो गई है । अब करने को कुछ बचा ही नहीं और जीवन शून्य हो गया है ,अब तो इस पर भी पूर्णविराम लग ही जाना चाहिए  ...... निवेदिता 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 18 अप्रैल 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. अरे!! इतनी निराशा? क्या हुआ? बच्चों की ज़िम्मेदारियां जब पूरी हो जाती हैं,तो ज़िन्दगी पर पूर्णविराम नहीं लगता, बल्कि उसी वक्त से हमारी समाज के प्रति ज़िम्मेदारियां बढ जाती हैं. वे काम जो हम अपनी गार्हस्थिक जीवनचर्या में पूरे नहीं कर पाये,अब उनमें रमने का समय है. खुद को जो समय नहीं दे पाये, अब खुद को समय देने का वक्त है. जी पढ के लिखने-पढने का समय है.निराशा एकदम अच्छी नहीं. ये नकारात्मकता है.मैं अच्छी पोस्ट नहीं कहूंगी. दोबारा लिखो.

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  3. ऐसा लग्न कई बार स्वाभाविक सा लगता है .. पर शायद बहुत कुछ है जीवन में इन सब के अलावा भी जो लगता ही कभी पूर्ण नहीं हो पाता ...

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