चाहती हूँ हर पल मुस्कराना
न न ये कभी न सोचना
मैं हो गयी हूँ बावली
न ही ये सोच रही हूँ
ये पल है अंतिम
जी लूँ जी भर कर
बस अचानक ही
एक ख्याल बहक सा गया है
क्या पता मेरी मुस्कराहट
बन जाये कारण
किसी और की मुस्कराने की
काश ये स्वप्न सच हो जाये
और मेरी मुस्कराहट ही
मेरी पहचान बन जाये
और चहलकदमी करते से
कदम ठिठक कर थमें
और कहें ......
हाँ ! यहीं तो वो मुस्कान रहती थी ..... निवेदिता
अपनी अपनी विशिष्ट मुआकान अपनी अपनी पहचान तो बन ही जाती है ... ये मुस्कान यूँ ही बनी रहे ...
जवाब देंहटाएंक्या बात है !!! पर हम तो हमेशा आपको आपकी खिलखिलाती हँसी और गुनगुनाती आवाज़ के साथ याद रखते हैं :)
जवाब देंहटाएंक्या बात है !!! पर हम तो हमेशा आपको आपकी खिलखिलाती हँसी और गुनगुनाती आवाज़ के साथ याद रखते हैं :)
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " खुशियाँ बाँटते चलिये - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंनिवेदिता जी आप की ये कविता बहुत ही रोचक है क्योकि आज के समय में मुस्कराहट कहि खो सी गई है आप इसी तरह से अपनी कविताएं शब्दनगरीपर भी प्रकाशित कर सकती हैं जिससे ये और भी पाठको तक पहुंच सके .......
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