मंगलवार, 19 जनवरी 2021

लघुकथा : एक टुकड़ा आसमान का


भीनी- भीनी सी बदली का एक छोटा सा टुकड़ा दूर कहीं आसमान में लहराता दिख रहा था ,जैसे अपने झुण्ड से एक मेमना अलग हो भटक रहा हो । कभी वह सूरज की थोड़ी ऊष्ण होती सी किरणों के सामने आ कर आँखों को सुकून दे जाती ,तो कभी तप्त किरणों के आगे से जैसे जल्दी से हट जाती थी । 


बहती हुई नदी की चंचल धारा ने उससे पूछा ,"बहन ! एक बात बताओ कि ,तुम को सूरज की किरणों से कोई शिकायत नहीं है क्या ... आखिर बदन तो तुम्हारा भी जल कर सिकुड़ जाता है !"


बदली का वह नन्हा सा टुकड़ा मानो और भी हँस पड़ा ,"नहीं ... सूरज क्या ,मुझे तो किसी से भी बिलकुल भी शिकायत नहीं है क्योंकि तीखापन उनकी प्रवृत्ति है और शीतलता मेरी । दो विपरीत प्रवृत्तियों से एक जैसा होने की उम्मीद या शिकायत करना तो उन दोनों के ही साथ अत्याचार होगा । वैसे नदी बहना ! जब अपना रास्ता बदलती हो ,तब करती तो तुम भी यही हो 😅"


नदी की भी लहरें मचल उठीं ,मानो उसने अट्टहास किया हो ,"दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए अपना अस्तित्व बनाये और बचाये रखने की सकारात्मकता सब में नहीं होती है ,परन्तु जिस ने भी इस बात को समझ लिया वही अपने हिस्से के आसमान के साथ ,सुकून से रह पाता है ।"

       ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

4 टिप्‍पणियां:

  1. "दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए अपना अस्तित्व बनाये और बचाये रखने की सकारात्मकता सब में नहीं होती है ,परन्तु जिस ने भी इस बात को समझ लिया वही अपने हिस्से के आसमान के साथ ,सुकून से रह पाता है ।"
    बहुत सटीक बात ...

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  2. विचारपूर्ण प्रभावी रचना 🌹🙏🌹

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