मदिर मधुर सुरभित इठलाती
लहराती जाती हवा ने साथ
बहती अविरल निश्छल
नदिया की धारा से पूछा
कैसे कंटक आने पर भी
राह यूँ ही बदल-बदल
छलकती जाती है
न तो गति बदलती
न ही प्रवाह बदलता
सखी कुछ मुझे भी
थोड़ा तो सिखलाओ
मैं तो राह सा हो लेती
नाले से गुजरूँ तो बदबू
उपवन से जाऊं तो महकूँ
तुम पर कैसे न कोई
अन्तर कभी आ पाए !
धारा मुस्काई लहराई
गुनगुनाती सी बतलाती गयी
मैंने न देखा राह में है क्या
मैंने न सोचा चाह में है क्या
अपनी धुन में नए तट बनाती
नयी राह अपनाती बहती जाती
जब भी मुश्किलों को भार माना
मानव से हुए प्रदूषण याद किया
विनाश ही विनाश किया
बहुतों को बेघर-बार किया
वो न समझे मुझे मैंने तो उसे
सिर्फ औ सिर्फ आबाद किया
जब भी दूसरे की प्रकृति देखेंगे
प्रकृति अपनी ही प्रदूषित करेंगे ...
-निवेदिता .
निवेदिता जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार
....दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
यथार्थमय सुन्दर पोस्ट
कविता के साथ चित्र भी बहुत सुन्दर लगाया है
शब्द जैसे ढ़ल गये हों खुद बखुद, इस तरह कविता रची है आपने।
जवाब देंहटाएंजब भी दूसरे की प्रकृति देखेंगे
जवाब देंहटाएंप्रकृति अपनी ही प्रदूषित करेंगे ...
बहुत ही अच्छा सन्देश दिया है आपने.
सादर
जब भी दूसरे की प्रकृति देखेंगे
जवाब देंहटाएंप्रकृति अपनी ही प्रदूषित करेंगे ...
per kahan samajhna chahta hai koi ! achhi rachna
प्रिय निवेदिता जी
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा प्रयाश है कमाल की पंक्तियाँ है |
धन्यवाद
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मैंने कुछ न देखा पथ में,
जवाब देंहटाएंसबको साथ लिया, बह निकली।
पावन, निर्मल भाव.
जवाब देंहटाएंमैंने कुछ न देखा पथ में,
जवाब देंहटाएंसबको साथ लिया, बह निकली।
बेहतरीन शब्द रचना ।
तुम पर कैसे न कोई
जवाब देंहटाएंअन्तर कभी आ पाए !
बहुत अच्छा प्रश्न ....अपने ही जीवन से ....!!
हवा और लहर के संवाद माध्यम से बहुत कुछ व्यक्त करने में सक्षम ...
जवाब देंहटाएंसार्थक सदेश देती रचना ....बुनावट प्रशंसनीय
आप सबका आभार .......
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