रविवार, 3 अप्रैल 2011

इन्सानों की मंडी......

आज मैंने देखी  इंसानों की मंडी,
नर-नारी सजे बिकाऊ जिन्स सरीखे ,
और खरीदार घेरे थे  हम सरीखे,
जांचते हुए किसमें कितना है दम ,
नकारते उनकी मजबूरियों को ,
न ! ये तो बिलकुल बेकार है ,
ये तो खुद ही नहीं चल पा रहा ,
क्या एक और को ले चलूँ 
इसको चलाने को ........
महँगा है ये सौदा मै नहीं करता,
ज़रा कोई उनसे पूछे,जो उनमें
सामर्थ्य होती तो वो वहां क्यों होते ?
तब तक पीछे से एक सहमी सी 
कंपकंपाती आवाज़ कुछ यूं आयी-
"ऐ साहिब हमका लै चलो ,हे मलिकार ..."
उसका वाक्य पूरा भी होने न पाया 
खरीदार ने उसे ये कह कर भगा दिया-
"ये तो और भी बेकार है दखते नहीं 
साथ में इसके बाल-गोपाल हैं 
हर थोड़ी देर में वो रोयेंगे और
ये उन्हें चुप कराने भागेगी ...........
कितनी मजदूरी बेकार जायेगी .........."
अफ़सोस हुआ मानवतारहित मनुष्य देखके
जब अपने बचपन में खुद रोते थे -
क्या माँ ने उन्हें दुलराया न था ?
अपने बच्चे की पुकार पर न बढ़ी उनकी बाँहे?
सच है मुझे न थी दुनियादारी की पहचान

कीमत से तौलते दूसरे की बेबसी ..........
खरीदार बनते ही बदल जाती भावना 

भूल जाते मनुष्य और मानवता का ज्ञान !!!
                                            -निवेदिता 

9 टिप्‍पणियां:

  1. अपने आप को ही अपने भावों में स्थापित कर लें, वही बहुत है जीवन में।

    जवाब देंहटाएं
  2. balkul sahi baat yahi hai aajkal ki duniya muh se kuch kehti hai or karti kuch or hi hai
    sundar spch acchi racha .

    जवाब देंहटाएं
  3. ये दुनिया सच ही मंडी है यहाँ हर कोई बिकता है ... और इंसान तो बिकता ही है और खरीदार भी है ...

    जवाब देंहटाएं
  4. यथार्थ अभिव्यक्ति.आप सब को नवसंवत्सर तथा नवरात्रि पर्व की मंगल्कानाएं.

    जवाब देंहटाएं
  5. अब भी सब कुछ वैसा ही ....इस मंडी में कोई बदलाव नहीं ....

    जवाब देंहटाएं