नदिया के दोनों किनारे ,
साथ चलते-चलते भी ,
अलग-थलग ही रहते ,
दोनों के बीच सोच जैसी,
जलधार उमड़ती आती ,
जब-जब धारा सकुचाती,
किनारे उमगते-किलकते ,
सोचते पास आने को ,
पर ये क्या धारा में तभी ,
आ जाती बाढ़ सी ,
फिर ..................
पास आने की आस रखते ,
दोनों किनारे फिर छिटक जाते,
दूरी अनवरत चलती जाती,
विलगाव जब ज्यादा पीड़ा देने लगा ,
किनारों ने फैलायीं बाँहे,
मन के ,सोच के मिलाप सा ,
मिली बाँहों ने स्नेह का पुल बनाया,
पुल ने न सिर्फ उन्हें ,
कई बिछड़ों को भी मिलाया ..................
-निवेदिता
किनारों को पुल ही जोड़ता है, पुल में अपनी ओर से आग न लगायी जाये, बस।
जवाब देंहटाएं@प्रवीण जी ,
जवाब देंहटाएंमैने किनारों में ही पुल बनने की कल्पना की है ।दूसरों के बनाये हुए पुल तो टूट ही जाते हैं .....
samanantar kinara.........:)
जवाब देंहटाएंbahut pyari se rachna..
बेहतरीन ।
जवाब देंहटाएंनिवेदिता जी , एक बेहत खूबसूरत इमगिनतिओन को स्थान दिया है आपने इस कविता में । वो किनारे जिनके मिलने की गुंजाइश न हो , उन्हें भी मिला दिया। बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंimagination ** [correction]
जवाब देंहटाएंविलगाव जब ज्यादा पीड़ा देने लगा ,
जवाब देंहटाएंकिनारों ने फैलायीं बाँहे,
मन के ,सोच के मिलाप सा ,
मिली बाँहों ने स्नेह का पुल बनाया,
पुल ने न सिर्फ उन्हें ,
कई बिछड़ों को भी मिलाया ..................
bahut sundar
बहुत बढ़िया संकेतात्मक कविता....बढ़िया चित्रण...
जवाब देंहटाएंकिनारों ने फैलायीं बाँहे,
जवाब देंहटाएंमन के ,सोच के मिलाप सा ,
मिली बाँहों ने स्नेह का पुल बनाया,
पुल ने न सिर्फ उन्हें ,
कई बिछड़ों को भी मिलाया .
positive and wonderful approach.
विचारो में शामिल होने के लिये आभार ........
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