आज तक यही सुनते आ रहे हैं , कि नारी ही नारी की शत्रु
है। कुछ अर्थों में शायद ये सच हो , किन्तु ऐसे कथन इस पुरुष-प्रधान समाज के पुरुष को उसके दायित्वों से मुक्त कर देते हैं ।
हम कितने भी आधुनिक हो गये हों , कितनी भी बहस कर लें , किंतु अंतिम निर्णय अभी भी पुरुष का ही रहता है । जब परिवार
में सास , ननद अथवा जिठानी या कहूँ कोई भी महिला सदस्य
जब कोई गलत कार्य करती है ,तब उस परिवार के पुरुष उन को
रोकते क्यों नहीं ? जब हर अच्छे कार्य की ज़िम्मेदारी खुश हो कर
लेते हैं ,तब किसी भी नारी पर होने वाले अत्याचारों के प्रति
अपनी ज़िम्मेदारी या कहूँ कि अपनी जवाबदेही को क्यों नकार
जाते हैं ? संभवतः यह एक सुविधाभोगी मानसिकता है । अतः ऐसे
वकतव्य देते हुए कभी-कभार ही सही इस सच को मानने में झिझक
नहीं होनी चाहिये ।
पुरुष के प्रति जवाबदेही तय करते हुए नारियों को भी
दूसरी नारी ,जिसके साथ अत्याचार हो रहा है , के बारे में भी सोच
लेना चाहिये और इस कथन --नारी ही नारी की शत्रु है -- को गलत
साबित कर देना चाहिये , क्योंकि ये एक कथन नहीं ,अपितु एक कलंक ही है जो एक संवेदनशील प्राणी दूसरे संवेदनशील प्राणी के
प्रति करता है !
बिलकुल सही कहा आपने.
जवाब देंहटाएंविचारणीय पोस्ट.
सादर
सही विचार हैं आप के धन्यवाद|
जवाब देंहटाएंजीवंत प्रश्न आपने उठाया ...हमें सोचना होगा
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जवाब देंहटाएंमेरे अपने परिवार में मैं यह अक्सर महसूस करता हूँ ! सास का रोल पुत्री और बहु दोनों के प्रति विरोधाभास से युक्त ही होता है !
जहाँ सास अक्सर अपनी पुत्री की उसकी ससुराल के बारे में राय मशवरा देना चाहेगी वही बहू द्वारा अपनी माँ से राय लेने को बुरा मानती है !
इस को रोकने के लिए महिलाओं को ही आगे आना पड़ेगा ! शुभकामनायें !
well writtennnnnnnn
जवाब देंहटाएंसही विचार हैं विचारणीय पोस्ट.
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन के लिये आप सब का आभार !
जवाब देंहटाएंआदरणीय सतीश जी , आप शायद मेरी बात को समझे नहीं ।
मैंने सिर्फ़ इसमें पुरुषों की भागीदारी की बात की है ।
तमन्ना कभी पूरी नही होती.....संजय भास्कर
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट पर आपका स्वागत है