शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

मन का भटकाव

जानती हूं मन का भटकाव असीम है
इसीलिये तो भटकती जाती हूं ,
कोशिश करती हूं ,
उलझन सुलझाने की
इसीलिये तो और उलझती जाती हूं
शायद इसी उलझाव भटकाव में ही
पाऊं कभी राह कोई
न सही जी. टी. रोड, कोई धूमिल सी
पगडंडी ही सही
उस पगडंडी को राजमार्ग सा भव्य
बना लूंगी मैं
अगर न भी बना पायी तो किसी
पहाड़ के कोने में
उपेक्षित पड़े देवालय की
शान्ति ,खोज ही लाऊंगी
पर द्वार तुम्हारे न जाऊंगी
कभी याचना के लिये
तुम आओ तो स्वागत है सदा
पर याद रखना ,जब भी आना
अपनी और मेरी भी
सीमारेखा को समझ कर ही आना ...

3 टिप्‍पणियां:

  1. गहरी बात की सहज अभिव्यक्ति.

    सादर

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  2. गहरे भाव लिए पंक्तियां.

    मगर (कई बार यूँ भी होता है,
    ये जो मन की सीमारेखा है;
    मन तोडने लगता है...)

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  3. भटकते मन के भटकते और गहराई में सोचते हुए शब्दों का संकलन.. अच्छी प्रस्तुति..

    आभार

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