की नजरों से अपना आकलन करता हूँ , तो मन सच में ही भटकने लगता
है | इन मर्यादाओं के पालन में मुझ से क्या कुछ छूटता गया और एक
बंधन में मै बंधता गया खुद को प्रमाणित करने की, एक आदर्श बनाने की |
जब अपना बचपन याद करता हूँ तो सामने माँ की तस्वीर आ जाती
है | मेरी माँ - महारानी कौशल्या - का अभिशप्त जीवन जो वो अपनी अन्य
सपत्नियो कैकेयी और सुमित्रा के साथ बांटने को मजबूर थी झूठे स्वीकार
के अभिनय के साथ |मेरी दूसरी माता कैकेयी महारानी का वैभव जीती थी
और भरत युवराज का ! शायद उस पल से ही माँ की वंचनाओ का बोझ
ढ़ोता मै आदर्श बनने की धुन में लग गया और एक सामान्य जीवन न
जी पाया | जब वनवास जाने का समय आया तब भी अपनी माँ को एक आदर्श बेटे की माँ होने का गर्व देने के लिए स्वेच्छा से वन चला गया |
अनेक ऐसी छोटी - छोटी घटनाये होती रही और मै मर्यादा पुरुष का
आकार लेता गया | इस प्रक्रिया में सीता निरंतर उपेक्षित होती रही और
इसकी हद तो तब पार हो गयी जब मैंने उनका त्याग किया , वो भी एक
धोबी के मामूली से उपहास पर ! मैंने अपने इस मर्यादित जीवन में ये एक
इतना बड़ा पाप किया , अपनी सहधर्मिणी जो गर्भवती थी और सम्पूर्ण रूप
से मुझ पर ही आश्रित थी , को राज्य से निकाल दिया एक कठिन जीवन
जीने के लिए ! यज्ञ में तो सीता की स्वर्ण - प्रतिमा प्रतिष्ठित कर दी पर
जीवंत अर्धांगिनी को उपेक्षित ही किया !
अगर मै इतना आदर्श बनाने का प्रयास न करता तब भी शायद अपने
राज्य ,समाज और अपने आश्रितों का पालन अच्छी तरह से ही करता,बिना
किसी भी प्रकार की ग्लानि के | अगर किसी भी स्त्री को उसके घर से निकाल दिया जाता हो तो उस राज्य को और कुछ भी कह ले किन्तु किसी
भी हालत में " रामराज्य " कभी भी नहीं कहा जा सकता है !
Beautiful analysis .
जवाब देंहटाएंsuder sankalan
जवाब देंहटाएंअंतर्द्वंद तो सही विषय पे है...निजी जीवन तो राम ने जिया ही नहीं...
जवाब देंहटाएंआपका कहना सही है ..स्त्री को उपेक्षित कर समाज का क्या भला किया जा सकता है ...
जवाब देंहटाएंकहना सही है
जवाब देंहटाएंरामकथा को देखने का नया दृष्टिकोण।
जवाब देंहटाएंआप सबका धन्यवाद ....
जवाब देंहटाएंक्या यह रचना "सरिता" में प्रकाशित हो चुकी है?
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