दिन में किसी भी वक़्त ,समाचार के किसी भी माध्यम से सामना हो जाए - अधिकतर हर ख़बर का असर या कहा जाए कि केंद्र सिर्फ और सिर्फ स्त्री ही होती है | अभी तक तो स्त्री को सांसे भी सहम - सहम कर ही लेनी
पड़ती थी | अब तो नई अवधारणा के अनुसार स्त्री को किसी भी चीज़ को
अस्वीकार करने का हक़ भी नहीं रहा ! इस इन्कार अथवा अस्वीकार के
दुस्साहस का परिणाम भुगतने के लिए भी स्त्री ही मोहरा बनती है - कभी
अंग -भंग करा के तो कभी मान - भंग करा के , खुद का भी और अपने
परिवार का भी | दो - तीन दिनों से जब भी सुबह समाचार की दुनिया से
सामना होता है , मुंह का ही नहीं आत्मा का भी स्वाद कसैला हो जाता है |
मान -भंग ना करने देने की सज़ा के तौर पर बच्चियां जीवन - मृत्यु की
लड़ाई लड़ रही हैं |
ऐसी परिस्थितियां इस तथाकथित आधुनिक ,शिक्षित , वैज्ञानिक
वैधानिक ( इस जैसे कितने भी विशेषण जोड़ लें ) समाज के दामन पर बदनुमा दाग ही है , किन्तु इस परिस्थिति पर हम सिर्फ चर्चा ही कर के रह जाते हैं ऐसा क्यों होता है ? अस्वीकार करने की चेतना जब हमने इन बच्चियों को दी है तो उस चेतना को स्वीकार करने की समझ भी रखें |
अगर हम ऐसा कुछ करने में सफल नहीं होते हैं , तब यह हमारे द्वारा उठाया गया एक आत्मघाती क़दम ही प्रमाणित होगा ....एक प्रयास यह भी कर के देख लें और इन अपनी निरपराध बच्चियों को विलुप्तप्राय होने से बचाने के लिए कुछ सार्थक करें ........
पड़ती थी | अब तो नई अवधारणा के अनुसार स्त्री को किसी भी चीज़ को
अस्वीकार करने का हक़ भी नहीं रहा ! इस इन्कार अथवा अस्वीकार के
दुस्साहस का परिणाम भुगतने के लिए भी स्त्री ही मोहरा बनती है - कभी
अंग -भंग करा के तो कभी मान - भंग करा के , खुद का भी और अपने
परिवार का भी | दो - तीन दिनों से जब भी सुबह समाचार की दुनिया से
सामना होता है , मुंह का ही नहीं आत्मा का भी स्वाद कसैला हो जाता है |
मान -भंग ना करने देने की सज़ा के तौर पर बच्चियां जीवन - मृत्यु की
लड़ाई लड़ रही हैं |
ऐसी परिस्थितियां इस तथाकथित आधुनिक ,शिक्षित , वैज्ञानिक
वैधानिक ( इस जैसे कितने भी विशेषण जोड़ लें ) समाज के दामन पर बदनुमा दाग ही है , किन्तु इस परिस्थिति पर हम सिर्फ चर्चा ही कर के रह जाते हैं ऐसा क्यों होता है ? अस्वीकार करने की चेतना जब हमने इन बच्चियों को दी है तो उस चेतना को स्वीकार करने की समझ भी रखें |
अगर हम ऐसा कुछ करने में सफल नहीं होते हैं , तब यह हमारे द्वारा उठाया गया एक आत्मघाती क़दम ही प्रमाणित होगा ....एक प्रयास यह भी कर के देख लें और इन अपनी निरपराध बच्चियों को विलुप्तप्राय होने से बचाने के लिए कुछ सार्थक करें ........
क्या औरत इन्सान या पुरुष की जन्मदात्री नहीं है? जिस दिन ईमानदारी से सम्पूर्ण समज इस प्रश्न के स्वाभाविक उत्तर को दिलो दिमाग में बैठा लेगा/ अपना लेगा वो दिन स्त्री ही नहीं मनुष्य जाति का भी सुनहरा दिन होगा.
जवाब देंहटाएंसादर
बच्चियों को तो जीवन में आना ही होगा, मानसिक संतुलन तभी बनेगा।
जवाब देंहटाएं.
जवाब देंहटाएंऔरत ने जनम दिया मर्दों कों ...मर्दों ने उन्हें बाज़ार दिए ...
A pathetic situation ! Those who are sensitive are continuously fighting with the system . That's is all we can do . But such small fights will be helpful in bringing a positive change some day .
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आपने बिलकुल सही आग्रह किया है ....पर वास्तविकता इसके उल्ट है ....आपका शुक्रिया
जवाब देंहटाएंस्वीकार या अस्वीकार स्त्रियों व बच्चियों का भी स्वाभाविक व संवेधानिक हक है जो उन्हें मिलते रहना चाहिये ।
जवाब देंहटाएंबिलकुल सही....स्त्री ही मोहरा बनती है .
जवाब देंहटाएंमैं आप की बातों से सहमत हूँ.
विचारोत्तेजक आलेख के लिए बधाईयाँ .
आपने बिलकुल सही आग्रह किया है
जवाब देंहटाएंआप सब की आभारी हूं !
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