शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

.........."जीवन की धूप-छांव"......

     अकसर सुनती थी ,कि धूप -छांव ,सुख - दुःख  दोनों ही साथ-साथ चलते है | मैंने इस सत्य को अपने ही जीवन में अनुभव किया है | कल अर्थात 
तीन फरवरी की तारीख हर साल मुझे एक साथ ही रुलाती और हंसाती है | 
         आज से ग्यारह  वर्षो पूर्व तक ३ फरवरी मेरे लिए सिर्फ और सिर्फ उमंगो और खुशियों भरी  ही होती थी |हर बार की तरह वर्ष २००० की देर रात  हम लोग पार्टी के बाद घर लौटे थे ,जहां एक मनहूस ख़बर हमारा इंतज़ार कर रही थी -हमारी माँ के देहांत की | हम स्तब्ध रह गए थे |किसी 
प्रकार खुद को संभाल कर हम लोग माँ के अंतिम दर्शन को हरिद्वार गए ,
जहां उनका अंतिम संस्कार होना था |मेरी बदकिस्मती ही थी कि मैंने पहली मृत्यु अपनी माँ की ही देखी |उस दिन के पहले माँ इस तरह के हादसों में मुझे न जाने देती थी |पढ़ने के अतिरिक्त किसी भी काम को माँ 
ने मुझे नहीं  करने दिया |सबकी सलाह रूपी तानो के जवाब में माँ ने हमेशा
यही कहा कि वक़्त खुद सब सिखा देगा | आज की आधुनिक माताओ को 
देखती हूं  तो उस वक़्त की घर में पढ़ी हुई अपनी माँ ज्यादा आधुनिक प्रतीत होती है  |कभी भी उन्होंने मुझे मेरे भाइयो से कम नहीं समझा |मुझे भाइयो से ज्यादा ही मान मिला |
           माँ की मृत्यु के बाद मुझे ये नहीं समझ आता है कि मै इस दिन को किस रूप में मनाउं ,क्योंकि इस दिन ही इतने अच्छे और समझदार हमसफ़र का साथ मिला और इस दिन ने  ही मेरी सबसे अमूल्य निधी मेरी माँ को छीन लिया |किसी के बधाई देने पर लगता है कि बधाई किस बात की  ,लेकिन अगर कोई संवेदना प्रगट करता है तो गुस्सा आता है |इतने वर्ष 
बिताने के बाद भी स्थिति अभी भी वही है |शायद किसी दिन इस उलझन से मुक्ति पा सकूं ......

7 टिप्‍पणियां:

  1. ऊपर वाला पँसे फेके, नीचे चलते दाँव।

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  2. हाय रे प्रभु की माया...कहीं धूप कहीं छाया....

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  3. आपने बिलकुल सही कहा धुप छाँव दोनों साथ ही चलते हैं और आपकी उलझन भी स्वाभाविक ही है.

    सादर

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  4. बहुत सही लिखा है| है सही उलझन |बधाई
    आशा

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