अकसर शाम होते ही दो कुर्सियाँ ले जाकर बालकनी में रख देती थी और नजरें घड़ी की सुइयों के साथ हिचकती ,कसकती आगे बढ़ती जाती थीं । हाँ ! उस समय सिर्फ दो ही काम होते थे कभी रूखी लगती सूनी सी सड़क को देखती तो कभी घड़ी को ...बहुत देर यही होता रहता था । फिर ढलती शाम और रात के गहराते साये हक़ीकत से रु - ब - रु करवा देते थे और कोरी कुर्सियाँ अंदर आ जाती थीं ।
अनायास ही कुछ खिलखिलाती आवाज़ें सुनाई देने लगी थीं । पड़ोस में एक नया परिवार आ गया था । उनके बच्चे खेलते हुए इस तरफ आ गयी गेंद को वापस देने की पुकार लगाते हुए खिलखिला देते थे और मैं मन्त्रमुग्ध सी उनकी हँसती सूरत में लड्डूगोपाल को महसूस करने लगी थी ।
अब भी बाहर दो कुर्सियाँ ले जाती हूँ ... एक पर बैठी ,बच्चों की गेंद के इस पार आने की प्रतीक्षा करती हूँ और हाथ में थामी हुई किताब को पढ़ने का प्रयास किये बिना ही दूसरी खाली कुर्सी पर छोड़ देती हूँ ।
पास ही रखे 'कारवाँ' से गाना गूँज उठता है "ज़िंदगी कैसी है पहेली .... "
सच ये मन भी न कहाँ - कहाँ भटकता रहता है !
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
30/08/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
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https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
सुंदर लघुकथा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी लघुकथा।
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