परम्परायें रहीं देखतीं
गान नहीं था साधारण !
शिशु अबोध किलक नहीं पाता
अपने सब छूटे जाये
नाव समय भी खूब सजाता
अंधेरा घिरता जाये
रश्मि किरण भी सच को ढँकती
नियति करे तब निर्धारण !
पूछ रहे सभी कुल का नाम
मौन सभी सामर्थ्य रही
गुणी देखते नहीं क्यों काम
वेदना अविरल हो बही
धधक रही थी उर में ज्वाला
पीर तभी बनती चारण !
बतलाता परिचय जो अपना
ज्ञान कभी मिलता कैसे
झूठ छुपाये सौ परतों में
पहुँच गया छल कर जैसे
चक्र फाँस सब मंत्र भूलता
चढ़ा शाप था गुरु कारण !
.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-08-2020) को "हिन्दी में भावहीन अंग्रेजी शब्द" (चर्चा अंक-3798) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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निवेदिता जी सुंदर नव गीत बधाई आपको।
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