गुरुवार, 29 सितंबर 2011

शारदीय नवरात्रि का अनमोल वरदान : अभिषेक


       नवरात्रि का पर्व ,सबके लिए सुख और समृद्धि की वर्षा करता आता है | हमारे परिवार को तो माँ जगदम्बा ने अनमोल वरदान दिया है | शारदीय नवरात्रि की  द्वितीया को ,हमारे छोटे बेटे अभिषेक का जन्मदिन है :) 

         जब भी कभी एक माँ अपने बच्चे के बारे में कुछ लिखती है ,तो वो लिखने से कहीं ज्यादा महसूस कर रही होती है | अनगिनत पल यादों में तैर जाते हैं | आज भी अभिषेक की पहली जिद की याद स्मित ला देती है |  अभिषेक बहुत छोटा था तब की बात है .... अपने बड़े भाई अनिमेष को स्कूल जाते देख खुद भी स्कूल जाने की बातें करता रहता था | एक दिन मैं अनिमेष को स्कूल के लिए तैयार कर रही थी ,तभी अचानक से पूरी तरह भीगा हुआ अभिषेक सामने आ गया और बोला " मै नहा चुका अब मुझे भी स्कूल भेजो "..... समझाने पर भी नहीं माना और स्कूल चला भी गया |दोपहर में जब दोनों भाई वापस आये तो अभिषेक के पास बातों का जैसे एक नया ख़जाना मिल गया था | उसने स्कूल जाने में कभी भी परेशान नहीं किया | ये उसकी पहली और अभी तक की आख़िरी जिद है !

           अभिषेक को ,जब से अक्षरों की पहचान हुई ,उसको पढ़ने का नशा हो गया था | किसी भी उपलब्धि पर ,उसकी फरमाइश सिर्फ और सिर्फ किताबों की होती थी | आज भी मुझे याद है ,जब हैरी पॉटर की किताबें आती थी उसको स्कूल जाने के पहले ही चाहिए होतीं थी | बेशक पढ़ता तो वो स्कूल से आ कर अपनी पढ़ाई पूरी कर के ही था ! हमारे घर के पास की 'युनिवर्सल' पर सब उसको पहचानते थे और उसकी सारी फरमाइशें पूरी करते थे | बाद में यही हाल 'लैंडमार्क' में भी हो गया था | आजकल आई.आई.टी.कानपुर जाने के बाद उसको अपना ये शौक पूरा करने के लिए थोड़ी सी समय की कमी हो गयी है | जब भी घर आता है, इस बात का अफ़सोस उसकी बातों में झलक जाता है | अभी उसके पास किताबों का बहुत अच्छा संग्रह हो गया है | अभिषेक के इस शौक पर हमें संतुष्टि मिलती है | उसकी भाषा पर उसके इस शौक का असर दिखता है | मेरे जन्मदिन पर वो हमेशा खुद कार्ड बनाता था और बहुत प्यारी बातें भी लिखता था ...... मेरे संग्रह में वो सभी कार्ड सुरक्षित हैं :)

           अनिमेष के आई.आई.टी. कानपुर जाने के बाद घर पर सिर्फ हम दोनों ही रह गये थे ,बच्चों के पिताश्री का स्थानान्तरण लखनऊ से बाहर हो गया था | उस समय हमारे परिवार के इस सबसे छोटे सदस्य ने मेरे लिए अभिभावक वाली संवेदनशीलता दिखाई थी | मैं सोचती थी कि वो घर से बाहर कैसे रहेगा और वो सोचता था कि उसके बिना मैं कैसे रहूँगी ! हर दिन एक नई सोच के साथ आता था कि मैं कुछ ऐसा करने लगूँ कि अकेलापन न महसूस करूँ | अभी भी हॉस्टल में तकरीबन डेढ़ साल रह चुकने के बाद भी मेरे आवाज़ की शिकन को भाँप जाता है | अभी भी  उसकी बातें ऐसी होतीं हैं कि वो एक मासूम सा छोटा बच्चा ही लगता है |

             कल २८ सितम्बर को आंग्ल तिथि से उसका जन्मदिन था और आज नवरात्रि की द्वितीया को हिन्दी तिथि के अनुसार जन्मदिन है | आज और हर पल बस यही दुआ करती हूँ कि "अभिषेक में हर पल नया करने की चाह बनी रहे और जो मिले उससे संतुष्टि भी मिले "........ अनन्त मंगलकामनाएं और शुभेच्छाएं :)

रविवार, 25 सितंबर 2011

don't want an ending........


        दोस्तों ,मेरे बड़े बेटे अनिमेष ,जो आई .आई .टी कानपुर में बी टेक तृतीय वर्ष का छात्र है ,ने अपने विचारों को कुछ इस रूप में कहा है ............. अनिमेष को अपना आशीष दीजिये :)


paths crossed...was it meant to be???
don't want an ending...
will it hold???...or just be a passing dream???
don't want an ending...
what changed it all...will it change???
don't want an ending...
can someone tilt the hour glass back???
don't want an ending...
those moments passed...would just fade???
don't want an ending...
fight for it???...is it worth it???
don't want an ending...
want to risk it all...do i really???
don't want an ending...
if has to end...why not now???
don't want an ending...
better wait...because really...
DON'T WANT AN ENDING...
               -Animesh Srivastava

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

आज फिर कहीं इक तारा टूटा .......

               
             आज कुछ सवाल उन बच्चों से जो ज़िन्दगी के मुश्किल हालातों से इतनी जल्दी घबडा जाते हैं कि              आत्मघात जैसा कदम उठाने के सोच लेतें हैं .......



आज फिर कहीं इक तारा टूटा 
दूर कहीं गगन की छाँव में ,
या कहूँ फिर कहीं सपनें टूटे 
पलकों की छाँव से दूर जाके 
ये है क्या हमारी अपेक्षाओं के 
बोझ तले दबे कोमल कंधे 
या हमने कहीं कमी कर दी 
आत्मबल को थाम लेने में 
आओ पास बैठो हम बातें कर लें 
सुलझ जायेंगी तेरी हर उलझन 
इस देखे हुए जहाँ की उलझनों से 
घबरा कर तुम यूँ कहाँ भाग चले 
अगर वहाँ भी अटकी राह तब ...
सोच कर बतला दो किधर जाओगे 
संजोये रखा तुम्हे धडकन की तरह 
तुम तो चल दिए हम कैसे जी पायेंगे 
हमारी आस तुम हर श्वास तुम 
हम साँसों के आने-जाने का बोझ
तुम्ही बताओ कैसे उठा पायेंगे .........
                           -निवेदिता 

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

दस दिशायें........



डगमगाते कदमों ने जब-जब देखा
पाँव के नीचे धरती का आसरा और
सिर पर तना निर्मल आसमान देखा 
निखरते रिश्तों की पहचान ने 
चारों दिशाओं का अभिमान दिया
इस पहचान और अभिमान ने  
शेष चारों दिशाओं का भी ज्ञान दिया 
इन दसों दिशाओं की प्यारी सुरक्षा ने 
अपनी आत्मा सा अपना साथ दिया 
आत्म की पहचान में उड़ने की आस जगी 
मुक्त गगन में परवाज़ भरने को दो प्यारे 
सुगठित पंखों का मुक्तमना साथ दिया 
इस दौर में टिमटिमाते तारों ने 
सप्तऋषियों सा तारक मंडल रच डाला 
धरती छूटी , आसमान भी छूटा 
एक दिशा ने भी मंझधार छोड़ा ......
बदलते मौसम सी सपनीली यादों ने 
नयनों में तिनके सी नमी का एहसास किया 
फिर डगमगा जाते कदमों को 
सप्तऋषियों ने बांह बढ़ा थाम लिया 
मुक्त मना हो अंत:स्थल गगन विशाल हुआ !!!
                                                -निवेदिता 

               कल भाई का जन्मदिन था ,उनकी फ़रमाइश पर ये लिखा | इसमें माँ-पापा धरती और आसमान हैं | चारों दिशाएँ मेरे चारों भाई हैं ,बाद में मिलने वाली दिशाएँ मेरी भाभियां हैं और सप्तऋषि हमारी दूसरी पीढ़ी | दो पंख मेरे बेटे हैं और आत्मा .पतिदेव के अतिरिक्त और कौन हो सकता है ......:)

बुधवार, 14 सितंबर 2011

???????





सन्नाटा या वीरानापन
सब हैं कितने अकेले ,
फिर भी समानार्थी बड़े ....
अकेलापन शब्द ही दृषद्वत है  
धरा का हर अणु हर पल 
कितना एकाकी है .......
तन्हाई का साथी अश्रु 
ये भी बहता अकेला है 
कितना बदनसीब है 
सहारा खोजता - खोजता 
भिगोता अपना ही दामन है ............
जब-जब मन व्यथित हुआ ,
तन की पीड़ा भी अलसाई ,
पल-पल कण प्रस्तर हुआ
सराहा तो मन अंधकूप हुआ ..
अकेलापन तो शायद नियति है
सृष्टि का निर्माण भी एकाकी था
अंत भी अकेला है ........ .
                            -निवेदिता 

रविवार, 11 सितंबर 2011

गहराते साए ........



मानवीय प्रवृत्ति कभी-कभी विचित्र परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देती है | हम जिस दुखद स्थिति से खुद को दूर रखना चाहते हैं ,उसको ही प्रतिपल अपने अंदर-बाहर ध्वनित करते रहते हैं | जिन सुख के लम्हों को थामने की सोचते हैं ,उन्हें ही उत्सवित होते गुजर जाने देते हैं | शायद वो उन लम्हों का भारी अथवा हल्का होना ही इसका कारण होगा | खुशियों से भरे न जाने कितने वर्ष कब बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता ,जब भी सोचा तो पलक झपकने की अनुभूति ही हुई | मातम की सिर्फ एक रात ,जब कोई अपनी जीवन-यात्रा पूरी कर सामने निश्चल-निर्जीव हो लिटाया गया हो लगता है अनंत युग से भी लम्बी हो गयी है ......सुबह होने का नाम ही नहीं लेती !

खुशी भरे पल अंतस तक को प्राणवान कर देते हैं | शायद इसीलिये हँसी पहले हृदय में तरंगित होती है ,फिर शरीर तक आती है और चेहरे तक पहुँच स्मित अथवा अट्टहास बन माहौल को ऊर्जवित कर देती है | जब मन शांत होता है तभी किसी भी सुख का आभास हो सकता है | दुःख का प्रथम आभास जरूरी नहीं कि मन को ही हो |शारीरिक पीड़ा पहले वाह्य रूप से महसूस करते हैं | कष्ट होने पर बहने वाले आँसू का स्रोत अवश्य अंतरमन ही होता है ,परन्तु आँसू आँखों से बह कर हमारे चेहरे को ही भिगो जाते हैं | बेशक माहौल थोड़ा संजीदा हो जाता है ,पर उस के सामने से हटते ही सब भूल भी जाते हैं | सूख चुके आँसू भी मन को यदाकदा भिगोते ही रहते हैं |

इसके मूल में शायद अच्छे की अनदेखी करना ही है | कितनी खराब चीजों को हम सहेजे रहते हैं | सराहना के भावों और शब्दों को भूल कर चुभती बातें याद करते रहते हैं | संभवत: ऐसा करके हम खुद से शत्रुता निभाते हैं|

पेंचो ख़म में उलझी ज़िन्दगी 
नित नई कसौटी पर कैसे कसें  
ख़ुद को चीरती पगडंडियों  को 
चक्रव्यूह की उलझन कैसे दे
अपने लम्हों का भारीपन
कुछ ऐसा हल्का भी नहीं 
औरों के गहराते साए क्यों ढोयें ........
                              -निवेदिता 

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

मासूम से सपनों को.........



                                                 नन्हीं पलकें अलसाई
                                                स्वप्निल सी मुस्काई 
                                                ओस सी मासूम अँखियाँ 
                                                खिलते और खुलते ही 
                                                अपनों के अरमानों की 
                                                अपेक्षाओं के तले कुछ 
                                                सहमी सी कसमसाई 
                                                सबने अपनी चाह जताई 
                                                अधूरे अरमान जगाये....
                                                अधूरी आशाओं अपेक्षाओं का 
                                                चंदोवा तान ,असीमित सीमाएं  
                                                समेट ,सिमटे आसमान का 
                                                कोना दिखलाया .......

                                             मनमोहक सुमन की सुरभि को 
                                             इत्र बना छोटी -छोटी शीशियों की 
                                             कैद में सजा सामान(?) बनाया  
                                             क्यों न इन नन्ही पलकों की 
                                             पावन अँगड़ाई सुरभित सुमन सा 
                                             लहराने इतराने दें ..................
                                             नन्हीं साँसों के अलबेले सपनों को 
                                             सावन के झूलों सी इक नयी  
                                             ऊँचाई छू आने  दें ..... 
                                             उनके  मासूम से सपनों को 
                                             एक नया बसेरा बनाने दें .....

                                                                                                -निवेदिता
 

सोमवार, 5 सितंबर 2011

अभिनंदन



                                                    चाहती हूँ रंगों के सागर में  
                                                    कुछ रंग मैं भी सजा आऊँ .
                                                    एक धुंधली सी तस्वीर में 
                                                    इक रंग प्यार का भर आऊँ 
                                                    हो न जाए कहीं किसी रंग में
                                                    धूमिल या चटकीली मिलावट 
                                                    सफेद तो रहे ही बेदाग़ ,
                                                    काला भी हो रौशन चमकीला 
                                                    चाँद-तारों की थिरकन से 
                                                    भरा-भरा रहे सजा सँवरा....
                                                    उस धुंधली तस्वीर में 
                                                    ख़्वाबों की सुवास बसा दूँ
                                                    धुप ,कपूर ,अगरु औ चन्दन 
                                                    इन से करूँ अभिनंदन ..........
                                                                                 -निवेदिता 

  

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

संबंधों की काँवर..........



                                                 काँधे पर लिए संबंधों (?) की काँवर
                                                 अपनी धुन में रिश्ते यूँ ही निभाते रहे 
                                                 पिछली रिसती साँसे अनदिखी रहीं 
                                                 सलामत रहे रिश्ते टीस सा चुभते रहे 


                                                सोचा दरारों में कुछ फूल पनप जाएँ 
                                                टूटन से बहते पलों को यादें थाम लेंगी 
                                                सुरभित पुष्प न सही कहीं से कभी तो 
                                                थोड़ी सेवार बहते लम्हों की बाँह गहेगी



                                                  नाकाम सी उम्मीद लिए रीतते लम्हों को 
                                                  नई पहचान देते झूठा सुकून तलाशते रहे 
                                                  शून्य सी पहचान लिए दायरे का अनदिखा 
                                                  सिरा तलाशते रह गये ..................



                                                  टूटे बरतन या चिटके फूलों से सजा गुलदान
                                                  सच अंतिम परिणति तो सिर्फ इतनी ही है 
                                                  दोनों की माटी को माटी में ही मिल जाना है
                                                  मन बावरा बहकता रहा भटकता रहा ....... 
                                                                                        -निवेदिता