आज कुछ सवाल उन बच्चों से जो ज़िन्दगी के मुश्किल हालातों से इतनी जल्दी घबडा जाते हैं कि आत्मघात जैसा कदम उठाने के सोच लेतें हैं .......
आज फिर कहीं इक तारा टूटा
दूर कहीं गगन की छाँव में ,
या कहूँ फिर कहीं सपनें टूटे
पलकों की छाँव से दूर जाके
ये है क्या हमारी अपेक्षाओं के
बोझ तले दबे कोमल कंधे
या हमने कहीं कमी कर दी
आत्मबल को थाम लेने में
आओ पास बैठो हम बातें कर लें
सुलझ जायेंगी तेरी हर उलझन
इस देखे हुए जहाँ की उलझनों से
घबरा कर तुम यूँ कहाँ भाग चले
अगर वहाँ भी अटकी राह तब ...
सोच कर बतला दो किधर जाओगे
संजोये रखा तुम्हे धडकन की तरह
तुम तो चल दिए हम कैसे जी पायेंगे
हमारी आस तुम हर श्वास तुम
हम साँसों के आने-जाने का बोझ
तुम्ही बताओ कैसे उठा पायेंगे .........
-निवेदिता
किस घटना से उद्वेलित हो फूटी है ये पंक्तिया ?
जवाब देंहटाएंविचार विलोड़न ...
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंbolo... तुम तो चल दिए हम कैसे जी पायेंगे
जवाब देंहटाएंआओ पास बैठें बातें कर लें।बहुत खुब।
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना।
जीवन बहुमूल्य है, यथासंभव बचा कर रखा जाये।
जवाब देंहटाएंरचना में निहित संवेदना आत्मीयता से पाठक को अपने साथ एकाकार कर लेती है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक और एक अच्छा संदेश देती हुई कविता।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत संवेदनशील ... विचारणीय रचना
जवाब देंहटाएंआज 23- 09 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
जवाब देंहटाएं...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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हम साँसों के आने-जाने का बोझ
जवाब देंहटाएंतुम्ही बताओ कैसे उठा पायेंगे .........bhaut hi sundar abhivaykti....
काश संवाद कायम हो सके और ऐसे आत्मघाती कदम उठाने से बच जायें ।
जवाब देंहटाएंहम साँसों के आने-जाने का बोझ
जवाब देंहटाएंतुम्ही बताओ कैसे उठा पायेंगे ....
बहुत ही अच्छी रचना ।
मै कल वही था जहा की घटना ने आपको द्रवित होने के ये पंक्तियाँ लिखा दी . हमारी पूर्ण संवेदना है .
जवाब देंहटाएंअपनी ही एक कविता में व्यक्त करूंगा अपनी टिप्पणी....
जवाब देंहटाएंबोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
आसमां की किस हद को छू पायेगा तू....
आदमी के जाल से कब तक बच पायेगा तू.....
बोल रे परिंदे....कहाँ जाएगा तू....
तेरे घर तो अब दूर होने लगे हैं तुझसे
शहर के बसेरे तो खोने लगे हैं तुझसे
अब तो लोगों की जूठन भर ही खा पायेगा तू
बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
दिन भर चिचियाने की आवाजें आती थी सबको
मीठी-मीठी बोली हर क्षण लुभाती थी सबको
आदमी का संग-साथ कब भूल पायेगा तू....
बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
बस थोड़े से दिन हैं तेरे,अब वो भी गिन ले तू
चंद साँसे बस बची हैं,जी भरके उनको चुन ले तू.
फिर वापस इस धरती पर नहीं आ पायेगा तू....
बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
bahut samvedansheel rachna.
जवाब देंहटाएंदिल को छू गई ...बहुत खूब
जवाब देंहटाएंतुम तो चल दिए हम कैसे जी पायेंगे ....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया और सामयिक चिंतन !
शुभकामनायें !
एक तारा क्यों टूटा, क्यों बच्चे आत्मघाती कदम उठाते हैं उनके पेरेण्ट्स पर क्या गुजरती होगी। अपने इतनी अपेक्षाएँ क्यों की हैं उनसे कि वे अपने जीवन को ही दाँव पर लगा रहे हैं। बहुत गहरी पीड़ा है आपके पोस्ट में। बच्चे भी अपने जीवन में गरिमामय स्पेस चाहते हैं जैसे हम, हम इसे कब समझेंगे।
जवाब देंहटाएंसंवेदना से भरी रचना मन को आंदोलित कर गयी । धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंगहर अर्थ लिए ...आपकी ये रचना
जवाब देंहटाएंयह एक त्रासदी है , परिवार और गुरुजन सही राह दिखा कर इन बच्चों में आत्मविस्वास जगायें ।
जवाब देंहटाएंकवि नीरज जी के शब्दों में-"कुछ सपनों के खो जाने से ,
जीवन नहीं मरा करता है ।"
मन को आन्दोलित कर जाते विचार. सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंबधाई.
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जवाब देंहटाएंAnimesh Srivastava :apka best creation hai abhi tak ka...
जवाब देंहटाएंमेरे बड़े बेटे अनिमेष की ये टिप्पणी मेरे लिए "लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड" सी है .....