ये कैसी शर-शय्या है
अब तक न बदली है !
तब भी अपनों ने ही
धराशायी किया था ,
अब भी अपनों के ही
हाथों में थमी तीर-कमान है !
तब कौरव शत थे और
पांडव थे सिर्फ पांच ,
अब फर्क इतना आया
कौरव हो गए हैं कम ,
सत्यार्थी की संख्या अधिक है !
गलत सिर्फ व्यक्ति का
गलत होता चुनाव है ,
संसद हो या कोई दरबार
नीति-नियंताओं के
मन-मस्तिष्क में पड़ चुकी है दरार !
जब पनपे अविचारे विचार
ऐसा ही होने लगता है ,
एक का आचरण
दूसरे को भ्रष्ट लगता है
ये तो अपना आईना कमाल करता है !
जब जनहित में सोचा
तभी सदाचरण होता ,
अल्पजन का सोचा
तभी भ्रष्ट होता गया
अब तो चले ही जाओ भई प्यारे भ्रष्टाचार !!!
-निवेदिता
शायद आपकी बात सच हो जाये, आशा तो जगी है ........
जवाब देंहटाएंउम्मीद पर दुनिया कायम है .. जब जब पाप बढ़ता है अंत करने वाला भी पैदा होता है ..
जवाब देंहटाएं'प्यारे भ्रष्टाचार',क्या सुन्दर उच्चारण है भ्रष्टाचार का.
जवाब देंहटाएंकहते हैं 'नंग बड़ा परमेश्वर से'
तो फिर आपने 'प्यारे' कह कर पुकारा तो ठीक ही किया.
आपकी सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.
निवेदिता जी,मेरे ब्लॉग को आपने क्यूँ भुला दिया है?
व्यवस्था पर चोट करती यह रचना सामयिक मुद्दों के कारण और भी महत्वपूर्ण हो गई है।
जवाब देंहटाएंसंभवतः तब सबका हित होगा।
जवाब देंहटाएंपौराणिक संदर्भ लिए एक सामयिक रचना -आज रामलीला मैदान में एक और शर शैया लग चुकी है !
जवाब देंहटाएंसटीक !
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