देख रही मैं सपन अनोखे ,
आ पहुँची प्रिय प्रणय की बेला !
निशा भोर की गैल चली है
तारों ने तब घूँघट खोला ,
मन्द समीर उड़ाये अंचल
रश्मि किरण का मन है डोला ,
पागल मन हो जाता विह्वल
रोज सजाता जीवन मेला !
माया में मन भटक रहा है
पल - पल करता जीवन बीता ,
अनसुलझी लट खोल रहा है
जीवन का हर घट है रीता ,
अंत समय जब लेने आया
मन फिर से हो गया अकेला !
बन्द नयन वह खोल रहा है
सच जीवन का वह बतलाता ,
तेरा - मेरा झूठा नाता
रह रह कर वह है समझाता ,
विहग तो उड़ जाये अकेला
लोभ सजाये मन का तबेला !
.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
बैहतरीन अभिव्यक्ति !!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंबहुत सुन्दर
हार्दिक आभार
हटाएंआदरणीया निवेदिता श्रीवास्तव जी, नमस्ते! आपकी गीत रचना बहुत अच्छी है। शब्दों का चयन बहुत सुंदर है। लयात्मकता को और सुंदर बनाने के लिए क्या इसतरह के कुछ परिवर्तन किए जा सकते हैं?
जवाब देंहटाएंआ पहुँची/आयी, रश्मि किरण/चन्द्र किरण,
बस ऐसे ही मन मे आया, इसलिए सुझाव दिया है। अन्यथा नहीं लेंगी। मैंने आपको अपने ब्लॉग के रीडिंग लिस्ट में डाल दिया है। कृपया मेरे ब्लॉग marmagyanet.blogspot.com अवश्य विजिट करें, और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएँ। सादर साधुवाद!--ब्रजेन्द्रनाथ
मेरी रचना की सराहना के लिये हार्दिक आभार
हटाएंआप जो संशोधन बता रहे हैं वह भाव और मात्राभार गलत्त कर देंगे ... पुनः देखियेगा ।
हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंलाजवाब नवगीत
जवाब देंहटाएंवाह!!!
आध्यात्मिक भावों से सजी सुंदर रचना।
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