शनिवार, 5 नवंबर 2011

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ये कैसी मानसिकता 
ये कैसी आयी दुर्बलता 
अनिश्चित को सहेजा 
निश्चित नियति देख 
घबराया कंपकंपाया 
आती सांस तो कभी 
इक पल आते-आते 
रुक कर अटक-भटक 
थकती ही चली जानी है 
नाम की परवाह सब 
संजोते ,सांस के थमते 
नाम अनाम हो कैसा 
गुमनाम  कर जाता है
चिरपरिचित कहूँ या
मानूँ चिरप्रतीक्षित....
उस अनपेक्षित तिथि की
ये कैसी अपेक्षाओं की
सूली चढ चुकी उपेक्षा
रिश्तों के ताने-बाने का
चंदोवा ताने ये कैसी
पहचान अनजानी बनी !
                -निवेदिता 

29 टिप्‍पणियां:

  1. नाम अनाम हो कैसा
    गुमनाम कर जाता है...

    अंतिम सत्य..!!

    बहुत खूबसूरती से कही गयी...!

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  2. रिश्तों में भी गुम होता नाम .. अच्छी प्रस्तुति

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  3. नाम तो उतर ही जाता है, न जाने कितनी उपाधियाँ ओढ़ लेते हैं हम।

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  4. कई बार जीवन खुद ही प्रश्नचिन्ह लगता है .....
    शुभकामनायें !

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  5. नाम अनाम हो कैसा
    गुमनाम कर जाता है...

    Sach hai.... Umda Panktiyan

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  6. खूबसूरत बेहतरीन पंक्तियाँ बधाई

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  7. आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 07-11-2011 को सोमवासरीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  8. नाम अनाम हो कैसा
    गुमनाम कर जाता है

    Bahut khoob...

    www.poeticprakash.com

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  9. बहुत अच्छी रचना,भावपरक !

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  10. गहन चिंतन.... उम्दा प्रस्तुति...
    सादर....

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  11. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब रचना लिखा है आपने ! बधाई!

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  12. बहुत अच्छी रचना...बधाई स्वीकारें

    नीरज

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  13. सुन्दर प्रयास सरहनीय है , शुक्रिया जी

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  14. नाम गम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा.

    सुंदर अभिव्यक्ति.

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  15. नाम अनाम हो कैसा गुमनाम कर जाता है ...
    भावनाओं और विचारों के असंतुलन से उपजती है ऐसे रचनाएँ !

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