लघुकथा : किन्नर मन
आज जन्माष्टमी का पर्व है और सब अपने - अपने तरीके से उसको मना रहे हैं । कोई मंदिर जा रहा दर्शन को और लड्डूगोपाल को पालने में झूला कर कर अपना वात्सल्य परिपूरित करने ,तो कोई अपने घर के पूजाघर में ही नटवर की झाँकी सजाने की तैयारी में लगा है ।सब को इतना उत्साहित देख कर बचपन याद आ गया । हम सब भी तो कितनी झाँकी सजाते थे । एक तरफ जेल में बन्द वासुदेव-देवकी ,तो दूसरी तरफ गइया चराने ले जाते कान्हा और उनके सखाओं पर नेह बरसाते नन्द-यशोदा । कान्हा का पालना भी फूलों की सुगन्धित लड़ियों से सजाते ।
मन बचपन की यादों में उलझ डगमगाने और कहीं नहीं सम्हला ,तब मंदिर की तरफ चल दी । वहाँ एक तरफ कुछ अजीब सी आवाजें आ रही थीं ,जैसे किसी को केंद्र में रख उसका उपहास किया जा रहा हो । जब खुद को नहीं रोक पायी तो उधर ही बढ़ गयी । वहाँ का दृश्य देखते ही मन अजीब से विक्षोभ से भर गया । दो किन्नर दर्शन के लिये पंक्ति में खड़े थे और उनसे थोड़ी दूरी बना कर खड़े लोग ,उनपर व्यंगबाण बरसा रहे थे ।कभी उनको ताली बजाने को उकसाते ,तो कभी नाचने को । मैंने जब उनको रोकने का प्रयास किया तब वो कहने लगे किकिन्नरों को पूजा का अधिकार ही नहीं है । उन्होंने पाप किया होगा ,तभी तो ये जन्म मिला । परिवार भी नहीं अपना सका उन्हें । अभी भी नहीं समझते और हर दरवाजे जाकर लूटते हैं नेग के नाम पर ।
मैं स्तब्ध रह गयी ये सुन ।मन अनायास ही चीत्कार कर उठा ,इनका तो शरीर ही किन्नर का है ,हमसब का तो मन किन्नर है । शोहदे से सताई जाती लड़की को देख कभी बचाने नहीं जाते । ससुराल में सताई और जलाई जाती बहू की चीखें सुनकर भी मन की कचोट को थाम लेते हैं पड़ोसी धर्म निभाने के नाम पर । अन्याय का विरोध करने के पहले ही उसके परिणाम को सोचता मन दुबक सा जाता है ।
मैं उनके पास जाकर खड़ी हो गई ," इनको किन्नर का शरीर क्यों मिला है मैं नहीं जानती । मैं आज समझ गयी हूँ कि तन किन्नर होगा या नहीं ,परन्तु मन को किन्नर नहीं होने देना है ।" .... निवेदिता
आज जन्माष्टमी का पर्व है और सब अपने - अपने तरीके से उसको मना रहे हैं । कोई मंदिर जा रहा दर्शन को और लड्डूगोपाल को पालने में झूला कर कर अपना वात्सल्य परिपूरित करने ,तो कोई अपने घर के पूजाघर में ही नटवर की झाँकी सजाने की तैयारी में लगा है ।सब को इतना उत्साहित देख कर बचपन याद आ गया । हम सब भी तो कितनी झाँकी सजाते थे । एक तरफ जेल में बन्द वासुदेव-देवकी ,तो दूसरी तरफ गइया चराने ले जाते कान्हा और उनके सखाओं पर नेह बरसाते नन्द-यशोदा । कान्हा का पालना भी फूलों की सुगन्धित लड़ियों से सजाते ।
मन बचपन की यादों में उलझ डगमगाने और कहीं नहीं सम्हला ,तब मंदिर की तरफ चल दी । वहाँ एक तरफ कुछ अजीब सी आवाजें आ रही थीं ,जैसे किसी को केंद्र में रख उसका उपहास किया जा रहा हो । जब खुद को नहीं रोक पायी तो उधर ही बढ़ गयी । वहाँ का दृश्य देखते ही मन अजीब से विक्षोभ से भर गया । दो किन्नर दर्शन के लिये पंक्ति में खड़े थे और उनसे थोड़ी दूरी बना कर खड़े लोग ,उनपर व्यंगबाण बरसा रहे थे ।कभी उनको ताली बजाने को उकसाते ,तो कभी नाचने को । मैंने जब उनको रोकने का प्रयास किया तब वो कहने लगे किकिन्नरों को पूजा का अधिकार ही नहीं है । उन्होंने पाप किया होगा ,तभी तो ये जन्म मिला । परिवार भी नहीं अपना सका उन्हें । अभी भी नहीं समझते और हर दरवाजे जाकर लूटते हैं नेग के नाम पर ।
मैं स्तब्ध रह गयी ये सुन ।मन अनायास ही चीत्कार कर उठा ,इनका तो शरीर ही किन्नर का है ,हमसब का तो मन किन्नर है । शोहदे से सताई जाती लड़की को देख कभी बचाने नहीं जाते । ससुराल में सताई और जलाई जाती बहू की चीखें सुनकर भी मन की कचोट को थाम लेते हैं पड़ोसी धर्म निभाने के नाम पर । अन्याय का विरोध करने के पहले ही उसके परिणाम को सोचता मन दुबक सा जाता है ।
मैं उनके पास जाकर खड़ी हो गई ," इनको किन्नर का शरीर क्यों मिला है मैं नहीं जानती । मैं आज समझ गयी हूँ कि तन किन्नर होगा या नहीं ,परन्तु मन को किन्नर नहीं होने देना है ।" .... निवेदिता
स्तब्ध हूँ पढ़कर | दुःख के साथ क्षोभ भी हो रहा है
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक और हृदय स्पर्शी संस्मरण सच्सीची सीख देता सा।
जवाब देंहटाएंकोशिश रहे कि हम अपने मन को किन्नर ना होने दें... बहुत खूब निवेदिता जी... हमें अपने अंदर तक खंगाल देने वाली रचना ....
जवाब देंहटाएंनिवेदिता दी, बिल्कुल सही कहा आपने की इंसान ने मन से किन्नर नहीं बनाना चाहिए। बहुत सुंदर प्रस्तूति।
जवाब देंहटाएं