शिकायत किससे : लघुकथा
दिन ब दिन माँ के कमजोर होते जाते शरीर को सहलाती मेरी हथेलियाँ कितनी बेबस हो जाती हैं । कितने ही निराशमना लोगों को अपनी बातों से ,अपने स्नेहिल स्पर्श से फिर जिंदगी में वापस ले आयी थी । आज अपनी ही माँ के सामने ,जहाँ सबसे ज्यादा सफल होना चाहती है ,वहीं सब कुछ कितना निरर्थक हो जा रहा है ।
एकबार फिर से समस्त आत्मबल समेट उसने माँ का चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में भर लिया ,"माँ बोलो न क्या बात है जो आप जीवनभर संघर्ष करती रहीं पर कभी गिरना तो दूर लड़खड़ाई भी नहीं । अब ऐसा क्या हो गया ? "
बहुत देर बाद माँ की बेहोशी में डूबती हुई आवाज ने मानो एक सिसकी सी भरी ," हर मुसीबत का सामना करते समय ये विश्वास था कि हमारा अटूट विश्वास है एक दूसरे के साथ । एक ऐसा व्यक्ति जिससे मैं कोई भी बात ,किसी की भी शिकायत कर सकती हूँ । पर अब जीवन के इस गोधूलि वेला में मेरा वो विश्वास उसी व्यक्ति ने तोड़ कर मुझे तोड़ दिया । विश्वासघात की स्वीकारोक्ति भी उसने तब की ,जब उसको मेरे साथ में खड़े रहने की जरूरत पड़ी ,और मैं भी बच्चों और परिवार का सोच कर मन ही मन घुटती हुई भी सामाजिकता के नाते ही उसके साथ खड़ी हो गयी । पर मन ही मन घुटती रही हूँ कि उसकी शिकायत किसी और से तो क्या खुद उससे भी नहीं कर सकती । विश्वास के टूटने से बड़ा आत्मघात और क्या होगा ! "
एक खामोश शिकायत की पीड़ा भी जैसे अंतिम साँस ले चुकी थी । ... निवेदिता
दिन ब दिन माँ के कमजोर होते जाते शरीर को सहलाती मेरी हथेलियाँ कितनी बेबस हो जाती हैं । कितने ही निराशमना लोगों को अपनी बातों से ,अपने स्नेहिल स्पर्श से फिर जिंदगी में वापस ले आयी थी । आज अपनी ही माँ के सामने ,जहाँ सबसे ज्यादा सफल होना चाहती है ,वहीं सब कुछ कितना निरर्थक हो जा रहा है ।
एकबार फिर से समस्त आत्मबल समेट उसने माँ का चेहरा अपनी दोनों हथेलियों में भर लिया ,"माँ बोलो न क्या बात है जो आप जीवनभर संघर्ष करती रहीं पर कभी गिरना तो दूर लड़खड़ाई भी नहीं । अब ऐसा क्या हो गया ? "
बहुत देर बाद माँ की बेहोशी में डूबती हुई आवाज ने मानो एक सिसकी सी भरी ," हर मुसीबत का सामना करते समय ये विश्वास था कि हमारा अटूट विश्वास है एक दूसरे के साथ । एक ऐसा व्यक्ति जिससे मैं कोई भी बात ,किसी की भी शिकायत कर सकती हूँ । पर अब जीवन के इस गोधूलि वेला में मेरा वो विश्वास उसी व्यक्ति ने तोड़ कर मुझे तोड़ दिया । विश्वासघात की स्वीकारोक्ति भी उसने तब की ,जब उसको मेरे साथ में खड़े रहने की जरूरत पड़ी ,और मैं भी बच्चों और परिवार का सोच कर मन ही मन घुटती हुई भी सामाजिकता के नाते ही उसके साथ खड़ी हो गयी । पर मन ही मन घुटती रही हूँ कि उसकी शिकायत किसी और से तो क्या खुद उससे भी नहीं कर सकती । विश्वास के टूटने से बड़ा आत्मघात और क्या होगा ! "
एक खामोश शिकायत की पीड़ा भी जैसे अंतिम साँस ले चुकी थी । ... निवेदिता
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें