रविवार, 18 अगस्त 2019

लघुकथा : रक्षा - कवच

रक्षा - कवच

बार-बार की मर्मान्तक पीड़ा झेलते हुए तन से ज्यादा मन टूट गया था । हर बार विरोध करती ही रह जाती थी ,परन्तु उसके गर्भ में साँसें भरने का प्रयास करती उसकी अजन्मी पुत्री को कोई आकार ले पाने से पहले ही ... और वो बेबस चीखती - सिसकती ही रह जाती थी । उसके बाद यंत्रवत ही तो अपनी दिनचर्या पूरी करती थी ,जैसे साँसों की कर्जदार हो वह ।

इस पाप की भागीदार बनने पर ,हर बार उसका अन्तःस्थल चीत्कार करता । अपनी तरफ बढ़ते अपने ही पति को खुद से दूर रखना चाहती थी । "अच्छा बहुत नये जमाने की हवा लग रही है । तुझको ब्याह कर लाया किसलिये हूँ ... " उसके पति का जवाब उसको बर्फ की शिला बना देता और वह अपनी मनमानी कर गुजरता । कुछ समय बाद फिर से वही पीड़ा अपना विकृत रूप दिखाती ।

आज तो जैसे मरुस्थल के सूखे पेड़ जैसे उसके मन पर अमृतवर्षा हो गयी । डॉक्टर ने बताया था कि इस बार जुड़वाँ बच्चे हैं उसके गर्भ में ,एक बेटी और एक बेटा । किंकर्तव्यविमूढ़ से रह गए थे वो माँ बेटा ... अरे वही जो रिश्ते में उसके पति और सास थे । डॉक्टर से माथापच्ची कर रह थे वो दोनों कि अंदर ही बेटी को मार दें और बेटे को बचा लें । कई बार समझाने पर भी ,उनके न समझने पर अन्त में डॉक्टर ने उनको डपट दिया था कि ये असम्भव है और वो चाहें तो किसी और डॉक्टर को दिखा लें । अंत में उसका विशेष ध्यान रखने की ढ़ेर सारी हिदायत दे डाली थी । मन ही मन अपने बेटे पर न्यौछावर हो गयी थी वो ,जिसने अपने साथ जन्म लेनेवाली बहन की रक्षा की थी उसके साथ आ कर । .... निवेदिता

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (19-08-2019) को "ऊधौ कहियो जाय" (चर्चा अंक- 3429) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत भावुक सा कर गया अंत, पता नहीं क्यों...। बेहद प्यारी लघुकथा...।

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