बुधवार, 21 अगस्त 2019

बेबसी



कंकाल सी उसकी काया थी
पेट पीठ में उसके समायी थी

बेबसी वक्त की मारी थी
कैसी वक्त की लाचारी थी

डगमगाते पग रख रही थी
मानती ना खुद को बेचारी थी

पुकार अबला की सुन नहीं पाती थी
पुत्रमोह में बन गयी गांधारी थी

अपना कर्मफल मान सह गई
पहले कभी की न कुविचारी थी

हर पल जीती जी मर गई
कमजोर पलों की गुनहगारी थी ... निवेदिता

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