कंकाल सी उसकी काया थी
पेट पीठ में उसके समायी थी
बेबसी वक्त की मारी थी
कैसी वक्त की लाचारी थी
डगमगाते पग रख रही थी
मानती ना खुद को बेचारी थी
पुकार अबला की सुन नहीं पाती थी
पुत्रमोह में बन गयी गांधारी थी
अपना कर्मफल मान सह गई
पहले कभी की न कुविचारी थी
हर पल जीती जी मर गई
कमजोर पलों की गुनहगारी थी ... निवेदिता
सारा दर्द शब्दों में निचोड़ कर रख दिया आपने |
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