मैं प्रेम की भाषा गुनगुनाती हूँ
तुम मन की वीणा बजाते हो
तुम मन की वीणा बजाते हो
मैं क्षितिज धरा का मिलन दिखाती हूँ
तुम दृश्य विहंगम छलावा बतलाते हो
तुम दृश्य विहंगम छलावा बतलाते हो
मैं सागर की लहरों में सीपी चुनती हूँ
तुम लहरों में सरकती रेत दिखलाते हो
तुम लहरों में सरकती रेत दिखलाते हो
मैं मूक विहग को गुनगुनाती हूँ
तुम नीड़ बनाता जोड़ा दिखलाते हो
तुम नीड़ बनाता जोड़ा दिखलाते हो
मैं सूखे पत्तों का उड़ना जीती हूँ
तुम सूनी पड़ी डाल दिखलाते हो
तुम सूनी पड़ी डाल दिखलाते हो
मैं स्वप्न सा जीवन यूँ ही सजाती हूँ
तुम पथ के काँटे चुन चुन हटाते हो
तुम पथ के काँटे चुन चुन हटाते हो
निवेदिता
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-06-2019) को
" नौतपा का प्रहार " (चर्चा अंक- 3355) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
…
अनीता सैनी
बहुत सुन्दर...!
जवाब देंहटाएंजीवन इसी परस्परता का नाम है..
जवाब देंहटाएंसकारात्मक और नकारात्मकता का अद्भुत संगम है रचना में
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर /अनुपम प्रस्तुति ।