रविवार, 2 जून 2019

तुम मन की वीणा बजाते हो

मैं प्रेम की भाषा गुनगुनाती हूँ
तुम मन की वीणा बजाते हो
मैं क्षितिज धरा का मिलन दिखाती हूँ
तुम दृश्य विहंगम छलावा बतलाते हो
मैं सागर की लहरों में सीपी चुनती हूँ
तुम लहरों में सरकती रेत दिखलाते हो
मैं मूक विहग को गुनगुनाती हूँ
तुम नीड़ बनाता जोड़ा दिखलाते हो
मैं सूखे पत्तों का उड़ना जीती हूँ
तुम सूनी पड़ी डाल दिखलाते हो
मैं स्वप्न सा जीवन यूँ ही सजाती हूँ
तुम पथ के काँटे चुन चुन हटाते हो
निवेदिता

4 टिप्‍पणियां:


  1. जी नमस्ते,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-06-2019) को

    " नौतपा का प्रहार " (चर्चा अंक- 3355)
    पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।

    आप भी सादर आमंत्रित है


    अनीता सैनी

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  2. जीवन इसी परस्परता का नाम है..

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  3. सकारात्मक और नकारात्मकता का अद्भुत संगम है रचना में
    बहुत सुंदर /अनुपम प्रस्तुति ।

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