लघुकथा : निष्कासन
अनवरत बहती अश्रुधारा को पोछते हुए ,आत्मविश्वास के प्रतीक सी उसकी आँखों मे आँखे डाल खड़ी हो गयी ,"तुम जो ये इतनी देर से लिख लिख कर पन्ने काले कर रहे हो ,ये सब व्यर्थ है । तुम्हारी दिखावटी दुनिया के स्याह पन्ने हैं ... खोखली मानसिकता ! तुम ये तस्वीर दिखा रहे हो सूखी चिटकी धरती की और बड़े बड़े व्याख्यान दे रहे हो ,पर तुमको ये रोती सिसकती माँ नहीं दिख रही । इसकी अजन्मी बेटियों की हत्या कभी मजबूरी बता कर तो कभी मजबूर कर के की है तुमने । धरती माँ सूखती है तो उसका आँचल सूखता और चिटकता है ,पर जब हाड़ मांस की माँ सूखती है न तो उसका मन भीगता है और हौसला टूटता है । पर अब नहीं ... अब जाओ तुम कम से कम धरती माँ का ही कर्ज उतार लो ,मैं अपनी कोख का जिम्मा खुद उठाउंगी ।"
लम्बी गहरी साँस जैसे उसकी आत्मा से निकली ,"जा कापुरुष मैं तुझे पिता के पद से निष्कासित करती हूँ!'
.... निवेदिता
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (08-06-2019) को "सांस लेते हुए मुर्दे" (चर्चा अंक- 3360) (चर्चा अंक-3290) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मार्मिक लघुकथा . बधाई .
जवाब देंहटाएंप्रभावी लघुकथा
जवाब देंहटाएं