शनिवार, 15 जून 2019

रिश्तों का सर्किट : लघुकथा

रिश्तों का सर्किट

अनझपी पलकों से वो उसको देखे जा रही थी ... और वो भी तो दीन दुनिया से एकदम बेखबर अपने सामने पड़े उस पुराने से ट्रांजिस्टर के सर्किट में उलझा हुआ था ।
उसे देख कर आश्चर्य होता था कि इतना कार्य पटु है कि कैसे भी उलझे ,बिगड़े हुए तन्तु  हों वो सहेज ही लेता था और खरखराहट मधुर स्वर लहरियों में बदल जाती थी ।

एक कचोट सी भी उठी दिल में कि बेजान तारों की भूलभुलैया को सुलझा लेने वाला ये रिश्तों के तार में कैसे उलझ गया और हर रिश्ता उसका फायदा उठाने उससे जुड़ता रहा और काम निकलते ही छोड़ता भी रहा ...

सच अजीब है रिश्तों की संरचना ,इसमें अधिकतर एक ही समझता है जबकि दूसरा उसको एक नामालूम से पल का एहसास ही मानता है ।

रोज सोचती हूँ कि उसको समझाऊँ पर उसके इस बात का जवाब मेरे पास आज तक नहीं आया ," मैं ऐसा ही हूँ अपनी तमाम कमियों के साथ । अगर जरा भी बदल गया तो वो बदला हुआ व्यक्ति कोई भी हो सकता है पर मैं नहीं । तुम भी तो मेरी परवाह करती हो न जैसा मैं हूँ ,अगर मैं इससे तनिक भी कम या अधिक होता तब शायद तुम्हारा ध्यान भी नहीं होता मुझ पर ।"

शायद हम साथ भी इसीलिए हैं कि हम एक दूसरे की कमियों के पूरक हैं ।
       .... निवेदिता

2 टिप्‍पणियां:

  1. सच ही है क्योंकि कमिय पूरी करती हैं एक दूजे की एक दूजे को ...
    पभी तो प्रेम, अपनापन, संभालना जागता है ...

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