लघुकथा : बबूल
अपनी ही धुन में मग्न बिना कुछ भी देखे वो ख्यालों के सुर ताल पर थिरकती सी आगे बढ़ती जा रही थी । अनायास ही जैसे कँटीले गुंजल में उलझ गयी वो । अपने हाथों और पैरों पर छिटक आयी ,लहू की लालिमा को देख ,अपना रास्ता रोके बबूल की झाड़ियों से शिकायत कर बैठी ,"सब सच ही तुम्हारा तिरस्कार करते हैं । हर जगह काँटे ही काँटे भरे हैं तुममें तो । इससे तो अच्छा था कि किसी फूल या फल वाली पौध लगाई गई होती ।"
इतनी तिरस्कार भरी बातें सुन कर ,एक पल को बबूल का पेड़ भी सहम कर दुखी हो गया । परन्तु अगले ही पल वो आत्ममंथन करता सा अपने बारे में और खुद से दूसरों की शिकायतों के बारे में सोचने लगा ...
पूरा जीवन बीत गया यही सुनते सुनते कि"बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से होये "...
वैसे सच ही तो है कि जो बोओगे वही तो फसल होगी ! पर किसी को भी इस तरह हीनता से सम्बोधित करना सही है क्या ?
मानता हूँ कि मुझ में काँटे बहुतायत में होता हैं ,पर ये भी तो सच है कि मेरी कोई विशेष देखभाल भी नहीं करनी पड़ती । न तो पानी डालते हो तुम सब और न ही खाद ,तब भी मैं जिजीविषा का प्रतिरूप बन पनप जाता हूँ।
तुम सब को मेरे काँटे दिखते हैं पर मेरे औषधीय गुण की चर्चा भी नहीं करते ... पर हाँ जब जरूरत होती है मेरी पत्ती, छाल सब ले जाते हो ... बेशक काँटे मुझमें तब भी रहते हैं ,पर शायद जरूरत उन पर ज्यादा भारी पड़ जाती है । मुँह के छालों में ,घाव भरने में ,रक्त रिसाव रोकने में ,झरते बालों को रोकने में ,आँख की बीमारियों में ,पसीना रोकने में ... कहाँ तक गिनाऊँ अपने औषधीय गुण । सब छोड़िये दातुन करने में नीम से अधिक प्राथमिकता मुझे ही मिलती है । कभी कभी कुछ नुकसान भी हो जाता है पर कारण औषधि बना कर गलत मात्रा में सेवन करने से होता है ।
सब बातें छोड़ भी दें तो घर की ,खेतों की बाड़ बनाते समय तो बड़ी ही बेदर्दी से मेरी ही डालियाँ काट ले जाते हो तुम सब ।
शायद मेरी स्थिति परिवार के उस अभिभावक सी है जिसके परिश्रम और ज्ञान का लाभ तो सब लेना चाहते हैं पर उसकी डाँट मेरे काँटों जैसी चुभती है ।
.... निवेदिता
अपनी ही धुन में मग्न बिना कुछ भी देखे वो ख्यालों के सुर ताल पर थिरकती सी आगे बढ़ती जा रही थी । अनायास ही जैसे कँटीले गुंजल में उलझ गयी वो । अपने हाथों और पैरों पर छिटक आयी ,लहू की लालिमा को देख ,अपना रास्ता रोके बबूल की झाड़ियों से शिकायत कर बैठी ,"सब सच ही तुम्हारा तिरस्कार करते हैं । हर जगह काँटे ही काँटे भरे हैं तुममें तो । इससे तो अच्छा था कि किसी फूल या फल वाली पौध लगाई गई होती ।"
इतनी तिरस्कार भरी बातें सुन कर ,एक पल को बबूल का पेड़ भी सहम कर दुखी हो गया । परन्तु अगले ही पल वो आत्ममंथन करता सा अपने बारे में और खुद से दूसरों की शिकायतों के बारे में सोचने लगा ...
पूरा जीवन बीत गया यही सुनते सुनते कि"बोया पेड़ बबूल का आम कहाँ से होये "...
वैसे सच ही तो है कि जो बोओगे वही तो फसल होगी ! पर किसी को भी इस तरह हीनता से सम्बोधित करना सही है क्या ?
मानता हूँ कि मुझ में काँटे बहुतायत में होता हैं ,पर ये भी तो सच है कि मेरी कोई विशेष देखभाल भी नहीं करनी पड़ती । न तो पानी डालते हो तुम सब और न ही खाद ,तब भी मैं जिजीविषा का प्रतिरूप बन पनप जाता हूँ।
तुम सब को मेरे काँटे दिखते हैं पर मेरे औषधीय गुण की चर्चा भी नहीं करते ... पर हाँ जब जरूरत होती है मेरी पत्ती, छाल सब ले जाते हो ... बेशक काँटे मुझमें तब भी रहते हैं ,पर शायद जरूरत उन पर ज्यादा भारी पड़ जाती है । मुँह के छालों में ,घाव भरने में ,रक्त रिसाव रोकने में ,झरते बालों को रोकने में ,आँख की बीमारियों में ,पसीना रोकने में ... कहाँ तक गिनाऊँ अपने औषधीय गुण । सब छोड़िये दातुन करने में नीम से अधिक प्राथमिकता मुझे ही मिलती है । कभी कभी कुछ नुकसान भी हो जाता है पर कारण औषधि बना कर गलत मात्रा में सेवन करने से होता है ।
सब बातें छोड़ भी दें तो घर की ,खेतों की बाड़ बनाते समय तो बड़ी ही बेदर्दी से मेरी ही डालियाँ काट ले जाते हो तुम सब ।
शायद मेरी स्थिति परिवार के उस अभिभावक सी है जिसके परिश्रम और ज्ञान का लाभ तो सब लेना चाहते हैं पर उसकी डाँट मेरे काँटों जैसी चुभती है ।
.... निवेदिता
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