मंगलवार, 21 मई 2019

लघुकथा : चाभी

लघुकथा : चाभी

आंटी के पास बैठी मैं उनको देखती ही रह गयी । किसीको दुलराती ,किसीको धमकाती ,किसीको छेड़ती गुदगुदाती तो किसी को डाँटती एकदम मन मस्तमगन झूम रही थीं । आखिर मुझसे नहीं रहा गया तब पूछ ही बैठी ,"आंटी आपकी डाँट का भी कोई बुरा नहीं मान रहा है । आपके पास से सब हँसते हुए ही जा रहे हैं , वो भी तब जबकि ये आपके परिवार से भी नहीं कि लिहाज करना मजबूरी हो । ऐसे कैसे सबको सहेजे हैं आप ... !"

आंटी मुक्तमना हँस पड़ीं ,"अरे ऐसा कुछ नहीं मुझमे ... बस ये सब मुझे अपने मन के ताले की चाभी मानते हैं । जानती हो कभी कभी ताला खोलने के लिये अपनी ही विवेकरूपी चाभी बेकार हो जाती है तब डुप्लीकेट चाभी बनवानी पड़ती है न । उस प्रक्रिया में ताले को कई बार ठोकर भी लगती है ,पर जब चाभी बन जाती है तो ताला भी बेकार होकर फेंका नहीं जाता । उसकी उपयोगिता बनी रहती है । मैं इनसबके लिये यही काम करती हूँ । ये सब निःसंकोच होकर मुझसे हरबात करते हैं । उनकी आधी समस्या तो बताते ही खत्म हो जाती है और बाकी उनका ही शांत हो चुका मन सुलझा देता है । मैं तो उनके लिये एक ऐसा मजबूत चौखट में जड़ा व्हाइटबोर्ड हूँ जिसपर उनका विश्वास है कि उनकी बात मुझ तक ही रहेगी । "
-- निवेदिता

4 टिप्‍पणियां:

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  2. आपकी लिखी रचना "साप्ताहिक मुखरित मौन में" शनिवार 25 मई 2019 को साझा की गई है......... "साप्ताहिक मुखरित मौन" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. वाक़ई, हमारे आसपास कुछ ऐसे गहरे और विश्वसनीय लोग होते हैं जिन से हम खुलकर अपने मन की सारी बात कह सकते हैं.

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  4. सही कहा आपने। कई बार हमे बस ऐसे किसी की तलाश होती है जिससे हम बिना झिझक के अपने मन की बात कह सके और हल्का महसूस कर सकें। पहले परिवार के साथ यह होता था। बहार थेरापिस्ट यह काम करते हैं। यह चाभी अगर मिल जाये तो काफी परेशानियाँ सुलझ सी जाती हैं। सुन्दर लघु कथा। आभार।

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