कभी कभी
ये हँसी
उमगती है
किलकती है
बस एक
झीनी सी
ओट दे जाने को
और आँसुओं को
ख़ुशी के जतलाने को
और हाँ
ये आँसू भी तो
बेसबब नही
इनसे ही तो
बढ़ जाता
नमक जिंदगी में!
✍️निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ
"आंखों" के झरोखों से बाहर की दुनिया और "मन" के झरोखे से अपने अंदर की दुनिया देखती हूँ। बस और कुछ नहीं ।
कभी कभी
ये हँसी
उमगती है
किलकती है
बस एक
झीनी सी
ओट दे जाने को
और आँसुओं को
ख़ुशी के जतलाने को
और हाँ
ये आँसू भी तो
बेसबब नही
इनसे ही तो
बढ़ जाता
नमक जिंदगी में!
✍️निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ
आ गयी जीवन की शाम
करती हूँ अन्तिम प्रणाम!
रवि शशि की बरसातें हैं
अनसुनी बची कई बातें हैं।
प्रसून प्रमुदित हो हँसता
भृमर गुंजन कर कहता।
किस ने लगाए हैं इल्जाम
करती हूँ अन्तिम प्रणाम!
कुछ हम कहते औ सुनते
बीते पल की थीं सौगाते।
प्रणय की नही अब ये रजनी
छुड़ा हाथ चल पड़ी है सजनी।
समय के सब ही हैं ग़ुलाम
करती हूँ अन्तिम प्रणाम!
जाती हूँ अब छोड़ धरा को
माटी की दी बाती जरा वो।
जर्जर हो गयी है अब काया
मन किस का किस ने भरमाया।
तन के पिंजरे का क्या काम
करती हूँ अन्तिम प्रणाम!
✍️ निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ
नगरी प्यारी राम की, बहती सरयू धार।
नगर अयोध्या आ गए , करने को उपकार।।
*
राम-राम के बोल में, रमता है संसार।
माया से तू दूर हो, मानव से कर प्यार।।
*
मनका-मनका खोल कर, खोज रहे भगवान।
रघुनंदन को देख कर , झूम उठे हनुमान।।
*
सदा यही मन चाहता, सजा रहे दरबार।
प्रभु के दर्शन से बड़ा, चाहूँ क्या उपहार।।
*
राज तिलक प्रभु का हुआ, गायें मंगलचार।
सुमन वृष्टि अनुपम हुई, करते सब जयकार।।
*
भूलो विषय विकार को, छोड़ो सब संताप।
छेड़ रागिनी प्रेम की, आन बसो प्रभु आप।।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
आग ... सच कितना डराती है यह आग। अपनी विकट भूखी ज्वाला में सब कुछ हजम कर जाती है और अवशेष के रुप में बच जाते हैं बस कुछ सूखे कण, जिसको राख के नाम से सम्बोधित करते हैं ... और हाँ!उनको हम अपने घरों में बिलकुल नहीं लाना चाहते हैं ... अपशगुन का प्रतीक भी तो मानते हैं उसको!
लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन
कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!
सुमिरूँ तुझको ओ अविनासी
दरस को तेरे अँखियाँ पियासी।
पिनाकपाणी जपूँ मैं स्त्रोतम
आओ उमापति मिटाओ उदासी।
झुकाए मस्तक करूँ मैं अर्चन!
लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन
कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!
कामनाओं के बादल घनेरे
मुझको माया हर पल घेरे।
वासना के जाल हटाओ
याचना करूँ लगा के फ़ेरे।
लगाई आस बनूँ मैं कुन्दन!
लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन
कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!
नन्दि सवारी सर्प हैं गहने
तेरी महिमा के क्या कहने।
छवि अलौकिक नेह बरसे
त्रुटि बिसारो जो हुई अनजाने।
कृपा करो हे सिंधुनन्दन!
लगा के चन्दन, करूँ मैं वन्दन
कैलाशवासी शिवोहम शिवोहम!
✍️ निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ
अंतरमन शुचि सुंदर हो मॉं
राग विकार से रिक्त हो जाऊँ!
रच जाऊँ श्रध्दा से माँ मैं,
साँस साँस पूजन हो जाये
शब्द करे यूँ नर्तन मन में
मन वृंदावन हो मुस्काए।
मन वीणा के तारों से माँ
महिमा तेरी पावन गाऊं।
अंतरमन शुचि सुंदर हो मॉं
राग विकार से रिक्त हो जाऊँ!
**
मन ही मन की न समझे
मैं मनका मनका फेर रही हूँ,
घट घट रमते बनमाली सा
नन्दन वन को हेर रही हूँ।
शीश मेरे माँ हाथ तो रख दो
झूम झूम पग से लग जाऊँ।
अंतरमन शुचि सुंदर हो मॉं
राग विकार से रिक्त हो जाऊँ!
**
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ
जब सब ठीक होगा ...
और हम फुरसत में होंगेलिख लेखनी मन की भाषा ।
रह न जाये कोई अभिलाषा ।।
विधना देखे अँखियाँ मूंदे
बरस रही कर्मों की बूंदे ।
मावस पावस की प्यास नहीं
मुक्ति की कोई आस नहीं ।।
पलकन हँसती जाये जिजीविषा
रह न जाये कोई अभिलाषा ।
लिख लेखनी मन की भाषा
रह न जाये कोई अभिलाषा ।।
ठगिनी दिखाये रोज तमाशा
लालसा बजाती ढ़ोल अरु ताशा ।
माया जिसके चरणन की दासी
छोड़ विलास मन हुआ कैलासी ।।
निश्छल मन की बनाये मंजूषा
रह न जाये कोई अभिलाषा ।
लिख लेखनी मन की भाषा
रह न जाये कोई अभिलाषा ।।
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ
गौरवशाली वंश के राज्य अयोध्या के आलीशान महल के सुसज्जित कक्ष में, थोड़ी सी उद्विन मनःस्थिति में, मंथन करते अयोध्याधीश राम को देख कर लग रहा था कि जैसे अपने कक्ष में ही चहलकदमी करते कदमों से समस्त ब्रम्हाण्ड को नाप लेंगे। महारानी जानकी ने कक्ष में प्रवेश करते ही राम की उद्विग्नता को जैसे अपनी मंद मधुर स्मित में समेट लिया, "आज अयोध्यापति किन विचारों की नौका में अलोड़न कर रहे हैं, जो अपनी संगिनी का आना भी नहीं जान पाये?"
राम ने जैसे अपने मन की कंदरा से बाहर आ कर, कक्ष को आलोकित करती सी मुस्कान बिखेरते हुए सीता को देखा, "क्या बात है सीते! आज अयोध्यापति का सम्बोधन?"
सीता की मुस्कान भी सितारों सी कक्ष को चमक दे गई, "हाँ! आप अयोध्यापति तो राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों के निर्वहन में मनन चिंतन करते रहते हैं, जबकि मेरे राघव तो एक चितवन से ही सब जान जाते हैं। अपनी उलझन मुझको बता कर देखिए तो आप की सीता किसी मंत्रणा के योग्य है भी अथवा नहीं।"
राम की स्मित में कौतुक विहँस उठा, "आज महिषी मेरी परीक्षा लेने को आतुर हैं।"
सीता ने हल्का सा गांभिर्य धारण किया, "हे रघुकुल नंदन!आप अपनी चिंता का कारण तो बताइये, अन्यथा आप जानते ही हैं कि कल्पना में भी सम्भव नहीं होनेवाली आशंकाओं की शंका से मेरा ह्रदय विदीर्ण होने लगेगा।"
गवाक्ष से झाँकते चाँद को देखते हुए राम जैसे स्वयं से ही बोलने लगे, "पुष्प, काँटे, पत्थर, नदी, धरती इन सब भिन्न प्रकृतियों के ऊपर अपनी निर्मल चाँदनी की शीतलता बरसाने में चाँद को कितनी कठिनाई होती होगी। पुष्प अपनी पंखुड़ियों से सहला कर तो काँटे अपनी चुभन दे कर और पत्थर अपनी कठोरता से तो नदी की लहरें अपनी शीतलता से हर तरह की चुभन को समेट कर चन्द्रकिरणों का स्वागत करती हैं। चाँदनी को भी तो देखो ... चाँद से विलग होने का दुःख सहते हुए भी, अपनी शीतल चमक से प्रकृति को रात्रि के अंधकार का सामना करने का साहस देती है। उसका दुःख किसी को क्यों नहीं दिखाई देता ... या कह लो कि कोई देखना ही नहीं चाहता ... ऐसा क्यों होता है सीते!"
सीता की शांत नजरें चाँद को देख रही थीं, "ऐसा करना उनका दायित्व है देव ... जब आप किसी स्थान विशेष पर पहुँच जाते हैं, तब व्यक्ति को भूल कर समष्टि का जीवन प्रारम्भ हो जाता है। इन सब से परे सबसे बड़ा और सच्चा सच यही है कि चाँद और चाँदनी कभी अलग हो ही नहीं सकते ... एक के दिखाई देने अथवा नहीं दिखाई देने पर भी, दूसरा उसके अस्तित्व को स्वयं में समाहित किये रहता है।"
अनायास ही जैसे राम अपनी तंद्रावस्था से जाग गए और गर्भवती सीता को सम्हाल कर बैठाते हुए उनकी कुशल क्षेम पूछने ही लगे थे कि सीता ने वाल्मीकि आश्रम में प्रवास की अपनी इच्छा जतायी। रघुनंदन चौंक उठे कि यह कैसी चाहत है जो शरीर के इस नाजुक दौर में, वह आश्रम के कठिन जीवन को अपनाना चाह रही हैं। इस प्रश्न का उत्तर खोजती सी, राम की निगाहें सीता के चेहरे पर स्थिर हो गई थीं।
सुरक्षा के एहसास का विश्वास जगाती राम की भुजाओं पर जानकी ने अपने सुकोमल हाथ रखते हुए कहा, "महाबाहु! आपकी चिन्ता का कारण मैं समझ गई हूँ और यह उसी का समाधान है। धोबी की उक्ति और उस का प्रजा द्वारा विरोध, सब मैं भी जानती हूँ।"
राम की वाणी स्नेह से नम हो गई, "तुम सच्चे अर्थो में मेरी सहधर्मिणी और अयोध्या की महारानी हो। मेरी उद्विग्नता और अनिश्चय के कारण को समझ कर , उसके निवारण के लिए, मेरे बिना कुछ कहे ही तुमने इतना कठोर निर्णय भी ले लिया ... जबकि तुम्हारी यह अवस्था ... "
सीता सहज थीं, "आर्यपुत्र! मेरे भूमिजा नाम से पुकारिये मुझको ... भूमि से जन्मी, यह साधारण स्त्री, असाधारण परिस्थितियों का सामना करने का साहस और धैर्य पृथ्वी से ही तो प्राप्त करती है।"
राम उनके निर्णय का विरोध कर उठे, "परन्तु तुमको महल का त्याग कर के वनवास के लिए कहा किसने है ... यह आदेश मैंने न तो आयोध्या नरेश के रुप में दिया है और न ही तुम्हारे पति के रुप में ... फिर इतना बड़ा निर्णय अकेले ही तुम कैसे ले सकती हो ... तुम कहीं नहीं जाओगी ... तुम यहीं, इसी महल में अपने परिवार के साथ रहोगी। एक और अग्निपरीक्षा नहीं दोगी तुम ... किसी भी परिस्थिति में नहीं दोगी। तुम्हारे इस निर्णय को ना तो अयोध्या की प्रजा स्वीकार करेगी, ना ही मंत्रि मण्डल और ना ही हमारा परिवार।"
राम जैसे एक पल को साँस लेने को थमे, "उस अफवाह का दूसरा अंश भी तो तुमने अवश्य सुना होगा कि वह धोबी अपने अनर्गल प्रलाप की क्षमा याचना के लिए भी आया था। मेरी चिन्ता का कारण उस का प्रलाप नहीं है, अपितु वह मदिरा है जो शरीर के अन्दर जाते ही व्यक्ति के मन, मस्तिष्क एवं वाणी पर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लेती है और कुछ भी करने एवं कहने से पहले व्यक्ति एक क्षण को सोचता ही नहीं है तब कुछ भी समझना तो बहुत दूर की बात है।"
सीता ने राम की उद्विग्नता को सहारा दिया, "आर्यपुत्र! पिता महाराज ने भी आपको वनवास का आदेश नहीं दिया था, परन्तु आपने उनकी दुविधा को समझ कर निर्णय लिया था वन गमन का और मैंने तथा सौमित्र ने आपका साथ दिया था। उस समय भी आपने हमारे निर्णय का सम्मान किया था, फिर अब ... "
राम अपने मन की थाह लेने लगे, "जानकी!उस समय तुम्हारे साथ मैं और सौमित्र थे। अब तुम एकदम अकेले जाना चाह रही हो, वह भी अपने शरीर की इस नाजुक अवस्था में ... इस समय तो तुमको विशेष देखभाल की आवश्यकता है, फिर यह निर्णय ... "
सीता के नयनों की झील की उत्ताल तरंगे स्थिरता पा गई थीं, "अयोध्या नरेश! शरीर की अवस्था नाजुक हो सकती है परन्तु मन की नहीं ... वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में आपके अंश और भी मानवीय मूल्यों से सम्पन्न हो कर, विकार रहित एवं सशक्त हो कर निकलेंगे। वैसे भी प्रत्येक पद, अपनी गरिमा का सम्मान देने के साथ ही उसका मूल्य भी वसूलता है। आज हम वही मूल्य चुकाने का प्रयास कर रहे हैं।"
"आज के तुम्हारे 'अयोध्या नरेश' सम्बोधन का मर्म अब मैं समझ गया ",राम मन्त्रमुग्ध से सीता को देखते ही रह गए, "चलो वैदेही! वनवास के समय तुमने स्वर्ण नगरी लंका की अशोक वाटिका में रह कर, अलग होते हुए भी वनवास में मेरा साथ दिया था। अब तुम्हारे वाल्मीकि आश्रम के वनवासी जीवन में साथ देने के लिए तुम्हारा यह राघव, इस मर्यादा नगरी अयोध्या के राजमहल के हमारे कक्ष में वनवासी जीवन अपना कर तुम्हारा साथ देगा। ब्रम्ह और शक्ति चाहें साथ में दिखाई नहीं दें, परन्तु रहते सदैव साथ ही हैं।'
वैदेही और रघुनाथ दूर गगन पर चमकते चाँद के पास आयी बदली को, उनसे दूर जाते हुए देखते रहे।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ