आग ... सच कितना डराती है यह आग। अपनी विकट भूखी ज्वाला में सब कुछ हजम कर जाती है और अवशेष के रुप में बच जाते हैं बस कुछ सूखे कण, जिसको राख के नाम से सम्बोधित करते हैं ... और हाँ!उनको हम अपने घरों में बिलकुल नहीं लाना चाहते हैं ... अपशगुन का प्रतीक भी तो मानते हैं उसको!
अग्नि दो तरह की होती है ... पहली तो स्थूल आँखों से बहुत से लोगों को एक साथ भी दिख सकती है। दूसरी अग्नि वह है जो दिखाई नहीं देती परन्तु अनुभव की जाती है, वह है अंतर्मन की अग्नि ।रामचरित मानस में इस मन की अग्नि के भी कई स्थान पर अनुभव होते हैं।
रामचरित मानस के सर्वाधिक चर्चित अग्नि प्रसंग की बात करने पर एकदम से जिस प्रसंग की याद आती है, वह है हनुमान जी द्वारा लंका के भीषण दहन की। मुझको यह अग्नि हनुमान जी, जिन को सीता जी ने अपना पुत्र माना था, के आक्रोश की अग्नि लगती है। सामर्थ्यवान पुत्र अपनी माँ के अपहर्ता रावण की नगरी, लंका को जला कर उनके अपमान का प्रतिशोध लेते हुए चेतावनी सी देता है कि आततायी अपनी परिधि में रहे और सीता माता को ससम्मान वापस राम तक पहुँचा आये। उसके ऐसा नहीं करने पर, राम के आने पर उनकी विजयश्री की मार्ग में आनेवाली संभावित बाधाओं को नेस्तनाबूत करने का प्रयास भी था यह अग्नि काण्ड। लंका दहन एक पुत्र एवं भक्त के समर्पण का ज्वलंत उदाहरण है।
मानस में अग्नि का सर्वाधिक दूसरा चर्चित प्रसंग लंका विजय के पश्चात राम के पास वापस जाने पर सीता को भी अग्नि परीक्षा देने का है। यद्यपि इस प्रसंग से संबन्धित कई उप कथाएँ भी हैं, तथापि यदि साधारण मनुष्य के समान समझें तब यही लगता है कि नियमों के समक्ष, राजा हों या प्रजा, सब समान हैं। मुझको इस का दूसरा अर्थ ज्यादा मोहता है वह है कि सबसे नाजुक समझी जाने वाली स्त्री के प्रतीक के रुप में, पूरे वनवास काल में सबसे अधिक मुश्किलों का सामना सीता ने ही किया और इसमें सहायक बना उनका आत्मबल जिसने अशोक वाटिका में एक नन्हे से तिनके को कवच सरीखा बना लिया था। एक तरह से सीता जी ने अमजन में यह विश्वास भरने की प्रेरणा दी कि कोई कितना भी असहाय क्यों न लग रहा हो, यदि वह आत्मबल को साधे रहे, तब दुष्कर परिस्थियों का सामना कर सकता है। साथ ही यह भी बताता है कि सबसे दुर्बल और उपेक्षित भी तिनके के समान सशक्त सहारा बन सकता है।
रामचरित मानस में इस अग्नि के अतिरिक्त भी कई प्रकार की अग्नि और उसकी दाहकता, बिम्ब के रुप में दिखाई देती है।
एक अग्नि कर्तव्य एवं सामाजिकता की है जो विश्वामित्र के अनुरोध पर उनके साथ राम एवं लक्ष्मण को भेजने से दशरथ को विवश सी करती दिखती है।
अग्नि अपनी तीव्रतम दाहकता के साथ तब भी परिलक्षित होती है जब दशरथ कैकेयी को दिए गए वचनों को पूरा करने के लिए अपने हृदयांश राम को चौदह वर्षो के वनवास पर जाते देखते हैं और उनके अपने कुल की परिपाटी, कि 'प्राण जाये पर वचन नहीं जाई' की परम्परा के पालन की विवशता की कुंठा से प्रज्जवलित क्रोधाग्नि, उनके अपने ही प्राणों की आहुति भी ले लेती है।
इसी कड़ी में क्रोध और शर्मिंदगी की अग्नि प्रकट होती है भरत के द्वारा कैकेयी के त्याग के रुप में।
कामदेव के जलने के समय भी अग्नि दिखाई देती है। कामदेव प्रतीक हैं इच्छाओं के, ज्वलिभूत कामना के। वह गए थे शंकर भगवान की तपस्या भंग करने की कामना ले कर, परन्तु उनके तीसरे नेत्र के खुलते ही भस्म हो गए। यह प्रसंग इंगित करता है कि ईष्ट के पास सिर्फ़ उनकी ही कामना ले कर जाना चाहिए, न कि उनको अपनी इच्छानुसार परिवर्तित करने के।
मानस में अग्नि सिर्फ़ अयोध्या के महल में ही सिमट कर नहीं रह गयी है, अपितु अयोध्या से लंका तक के वनों में निवास कर रहे, ऋषियों के विवश आक्रोश की दाहकता के रुप में दावानल सी विस्तार पाती है। सच यह दावानल ही तो था जिसने अयोध्या के राजमहल से राम-लक्ष्मण रुपी चिंगारी को प्रखर बनने को प्रेरित कर के आसुरी प्रवृत्ति वाली लंका को नष्ट कर दिया।
रामचरित मानस का सबसे बड़ा सच यह है कि जब-जब इस अग्नि को राम का आशीर्वाद मिल जाता है तब-तब रामचरित मानस के विविध प्रसंगों में सर्दियों की धूप सी सकारात्मक लगती है और मन प्रभु कृपा की गुनगुनी धूप सेंकने लगता है।
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें