लिख लेखनी मन की भाषा ।
रह न जाये कोई अभिलाषा ।।
विधना देखे अँखियाँ मूंदे
बरस रही कर्मों की बूंदे ।
मावस पावस की प्यास नहीं
मुक्ति की कोई आस नहीं ।।
पलकन हँसती जाये जिजीविषा
रह न जाये कोई अभिलाषा ।
लिख लेखनी मन की भाषा
रह न जाये कोई अभिलाषा ।।
ठगिनी दिखाये रोज तमाशा
लालसा बजाती ढ़ोल अरु ताशा ।
माया जिसके चरणन की दासी
छोड़ विलास मन हुआ कैलासी ।।
निश्छल मन की बनाये मंजूषा
रह न जाये कोई अभिलाषा ।
लिख लेखनी मन की भाषा
रह न जाये कोई अभिलाषा ।।
... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ
अभिलाषा ना रखने की सुन्दर अभिलाषा ...
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