मंगलवार, 11 फ़रवरी 2020

लघुकथा : मोच

लघुकथा :  मोच

विदिशा पार्क में बैठी विशाखा को खामोशी से बच्चों को खेलते देख रही थी । कितने दिनों के अथक प्रयास के बाद वह उसको घर की लक्ष्मणरेखा से निकाल कर यहाँ ला पाने में सफल हो पाई थी ।

"चल एक चक्कर लगाते हैं पार्क का ",विशाखा ने हाथ बढ़ाया ।

"नहीं चल पाऊँगी ... देख न कल पैर मुड़ गया था ,मोच आ गई है ।"

विदिशा ने टोटलती नजरों से विशाखा को देखते हुए उसकी दोनों बाँहें पकड़ झकझोर दिया ,"जानती है मोच तेरे पाँव में नहीं बल्कि तेरी सोच में आई है । कब तक इस तरह की बातों के पीछे छुपकर खुद को मरती रहेगी ! "

"काश मेरी विवशता तू समझ पाती ",विशाखा की पलकें भीग गयी ।

उम्मीदों के अनगिनत जुगनुओं की चमक से भर विदिशा ने विशाखा के झुकते चेहरे को उठाया ,"तू कोई विवश नहीं है ,बस सच को स्वीकार ही नहीं कर रही है । कितना भी चाह ले ,परन्तु अपनी आयु पूरी किये बिना तू मर भी नहीं सकती । एक बात और भी याद रख ... अगर इस मनःस्थिति में तू कोई कायराना कदम उठाती है तो यह अन्याय होगा तेरे नन्हे मासूम बच्चों पर । हमसफ़र के साथ के मुस्कराते लम्हों की यादों और इन नन्हे फरिश्तों की खिलखिलाती उम्मीदों से अपनी सोच पर बस गयी मोच को दूर कर ।"
              ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी'

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