मंगलवार, 18 फ़रवरी 2020

लघुकथा : रेत के कण

लघुकथा : रेत के कण

रेत के कण बार - बार उड़ कर आँखों मे पड़ रहे थे और उनसे बहती हुई अश्रुधार एक बहलावा सा दे रही थी कि अकेली बैठी अनघा आँसू नहीं बहा रही है बल्कि वो कण आँखों से पानी निकालने पर विवश कर रहे हैं ।

उधर से गुजरती बच्ची ने अनघा को रुमाल देते हुए कहा ,"आंटी आप आँख पोछ लो । ये रेत समुद्र के पानी से रोज ही भीगती है तब भी पता नहीं क्यों इतनी रूखी होती है कि आँखों में पड़ कर परेशान करती है । आप ऐसा करो न उस तरफ पीठ कर के बैठ जाओ । फिर आपकी आँखों मे रेत भी नहीं पड़ेगी और जिन लहरों में साहस होगा ऊँचा उठने का वो ही आप तक पहुँच पायेंगी  । "

अनघा उसको देखती रह गई । इतनी छोटी सी बच्ची उस की समस्या का समाधान कर गयी । भरे - पूरे परिवार को वो अपने स्नेह जल से सिंचित ही करती रही परन्तु उसके हिस्से में सबकी चुभती हुई ,रूखी बातों की चुभन ही आयी । शायद निरन्तर सबका ध्यान रखते - रखते अपना ध्यान रखवाना वो भूल ही गयी थी । अब जरूरत उधर से चेहरा फेरने की ही थी । जिसको उसकी जरूरत होगी वो उसके पास आयेगा ही ।

तभी फोन पर ट्रैवल एजेंट का नम्बर चमकने लगा । उसने फोन रिसीव किया ,"क्या निश्चय किया आपने ... महिलाओं वाले ट्रिप में अब सिर्फ एक ही सीट बची है । बाद में कुछ नहीं कर पाऊँगा ।"

अनघा एक सुकून की साँस लेती बोल पड़ी ," हाँ ! मैं चल रही हूँ । "
       ... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

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