शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

मन वॄंदावन

मन को बांसुरी बनाने पर ही वॄंदावन दिखता है । बांसुरी बनने के पहले वो महज एक बांस का टुकडा ही रहती है ,क्योंकि  उसमें बहुत से विकार रहते हैं ।जब उस टुकडे को साफ़ कर अदंर से सब कलुषता हटा कर संतुलित स्थान पर छेद करते हैं , जिससे अंदर कहीं भी कलुष न रह जाये , तब उसको बांसुरी का सुरीला रूप मिलता है । तब भी उसमें से मधुर स्वर तभी निकलते हैं , जब कोई योग्य व्यक्ति उसको  स्पर्श करता है। अगर अयोग्य के हाथ पड़ी तो तीखे स्वर ही निकलेगें।
           

ऎसे ही मन से आत्मा से समस्त कलुष -विकार हटा दें तब वह निर्मल भाव बांस का एक पोला टुकडा  बनता है । इस टुकडे में मन की , कर्म की ,नीयत की सरलता , सहजता  एवं सद्प्रवॄत्तियों को आत्मस्थ करने पर मन रूपी बांस के टुकडे पर संतुलित द्वार बनते हैं। इन्ही द्वारों से आने वाले सद्विचार एवं सत्कर्म हमें परमेश्वर रूप निपुण वंशीवादक से मिलाते हैं , जो हमारी मन वीणा को झंकॄत कर मीठी स्वरलहरी से भावाभिभूत करते हैं और मन  वॄंदावन   बन जाता है ।

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