"आंखों" के झरोखों से बाहर की दुनिया और "मन" के झरोखे से अपने अंदर की दुनिया देखती हूँ। बस और कुछ नहीं ।
शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010
पहाड़ को रेत न बनाओ
पहाड़ टूटता है तो चट्टान बनती है । चट्टान को भी तोडें तो वो छोटे टुकडों में बंट कर कंकड़ बन जाते हैं । पहाड रास्ता रोकतें हैं तो नफ़रत , चिढ या झुंझलाहट में हम उसे तोड़ते हैं और फ़िर खुश हो लेते हैं कि हमने उसका अस्तित्व ही मिटा दिया तभी वो पहाड़ कंकड़ बन कर हमारे पावं में चुभ जाता है । तब हम उत्साह और आत्मविश्वास के अतिरेक में उस कंकड़ को भी नष्ट करने में लग जाते हैं और उसे रेत बना देते हैं । यहीं पर हमसे गलती हो जाती है । पहाड़ आंधी पानी तूफ़ान किसी पर भी प्रतिक्रिया नहीं देते हैं क्यों कि वो अपने में गुरुता का निर्वहन करते हैं । चट्टान को धकेल कर उस के अपने स्थान से सुविधानुसार खिसकाते रहते हैं । वो भी परिस्थितियों के अनुसार ढ़लने का प्रयास करती है । कालान्तर में ठोकरें खा खा कर अपना रूप बदलने पर मजबूर हो कर कंकड़ बन जाती है । समस्या तो तब आती है जब उसके अस्तितव को ही मिटा कर रेत बना देते हैं । तब उसमे भी विद्रोह जागता है , हवा के रूप में और आखों में चुभ कर अपने होने का अहसास करा ही देता है । शायद इसीलिये कहते हैं कि किसी को भी परिषकॄत करो , कि्सी भी सांचे में ढ़ालने का पर्यास करो पर उसका अस्तितव उसकी निजता बनी रहने दो जिससे उसमे हुए परिवर्तन पता भी चले और उस को चुभे भी नहीं ।
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कल 27/जून/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद !
सत्य कहा आपने। उत्कृष्ट लेख
जवाब देंहटाएंकिसी को भी परिषकॄत करो , कि्सी भी सांचे में ढ़ालने का पर्यास करो पर उसका अस्तितव उसकी निजता बनी रहने दो जिससे उसमे हुए परिवर्तन पता भी चले और उस को चुभे भी नहीं। .... बहुत सही कहा आपने …
जवाब देंहटाएंप्रेरक प्रस्तुति