गुरुवार, 21 मई 2020

लघुकथा : झरती रेत

लघुकथा : झरती रेत

माँ के कमरे से परेशानहाल निकले भाई गगन को अकेले बैठे देखकर ,भाभी क्षितिजा को चाय लेकर आने के लिए कहती हुई वसुधा उसके पास आ गयी  ,"भाई कल तो मैं वापस चली ही जाऊँगी ,आओ आज हमलोग साथ में चाय पीते हैं । आज इतने परेशान क्यों हो ? माँ ठीक हैं ,थोड़ी कमजोरी है उनको ।"

वसुधा का हाथ थामते हुए गगन छोटे बच्चे सा अधीर हो उठा ,"वसु ! मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि करूँ तो क्या करूँ ... दिन - ब - दिन माँ और कमजोर ही होती जा रही हैं । "

"भाई ! कितनी भी कोशिश कर लो कुछ दिक्कतें तो रूप बदल - बदल कर ढ़लती उम्र की साथी बन ही जाती हैं । तुम तो पूरा ध्यान रख ही रहे हो और भाभी भी तो माँ को पलकों पर रखती हैं " ,वसुधा समझते हुए जैसे छोटी से बड़ी बहन बन गयी ।

गगन खुद को रोकते - रोकते भी फफक पड़ा ,"जीवन का सत्य जानता भी हूँ और मानता भी हूँ ,परन्तु क्या करूँ मैं ... जानती है वक़्त की मुट्ठी से झरती रेत को अपने ही घर मे झरते हुए नहीं देख पा रहा हूँ ।"
                               ... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

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