शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

लघुकथा : इंक्वायरी

लघुकथा : इंक्वायरी

प्रभास उलझन में इधर से उधर चहलकदमी कर रहा था, जैसे किसी उलझन में फंसा हो और निर्णय नहीं ले पा रहा हो । विभु उसकी पीड़ा से व्यथित होती उसको देख  रही थी । दोनों ही अनिर्णय के भँवर में फँसे छटपटा रहे थे ।

"विभु ! तुम क्या कहती हो ... मुझे क्या करना चाहिए ,क्योंकि मेरे किसी भी निर्णय का असर सिर्फ मुझ पर ही नहीं बल्कि पूरे परिवार पर और खासतौर से तुम पर भी होगा । "

"प्रभास ! बहुत समय सोचने में गंवा चुके हैं हम सब । अब तो निर्णय लेने का समय है । कहीं ऐसा न हो कि हम सोचते ही रह जायें और देर हो जाये । काम सही हो तब भी ,कभी राजनीतिक विवशता तो कभी सामाजिक तनाव बता कर ,सस्पेंशन और इंक्वायरी तो चलती ही रहती है । अंतरात्मा की आवाज पर किये गये सही काम के लिये सब मंजूर है । उस बेबस बच्ची की तड़प भी जो नहीं देख पाये ,उसका अन्त होना ही चाहिए ।"

"सही कह रही हो विभु ! अभी तक दरिन्दे यही समझते थे कि जला कर खत्म कर दो तो वो साक्ष्य के अभाव में बच जायेंगे ... पर शायद अब किसी के दामन को पकड़ने से पहले इस एनकाउंटर को याद कर रुक जायेंगे ।"

संविधान के दोनों रक्षक समझ रहे थे इलाज से जरूरी बचाव है जो अपराधियों में दहशत पैदा कर के ही सम्भव है ।
       .... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें