लघुकथा : अभाव
वो सहमी सी ,अपने घुटनों में अपना चेहरा छुपाये बैठी ,बरसती आँखों से जमीन को देख रही थी ... मानो उसके देखने से ही जमीन दो टुकड़ों में विभक्त हो कर वैदेही की तरह अपनी गोद में छुपा लेगी । पर नाम वैदेही होने पर भी तो प्रकृति उस पर सदय नहीं हो रही थी ।सब तरफ से आती आवाजों से वह बिंध रही थी ...
जरूर इसी ने पहल की होगी ...
अरे नहीं ,इसने कुछ नाजायज मांग की होगी और पूरी न होने पर उसको बदनाम कर रही है ...
देखो इसको शरम भी नहीं आ रही है ,कैसे सबके सामने सब बोले जा रही है ...
वैदेही की पीड़ा चीत्कार कर उठी ," मुझे नोंचने के बाद उन कुत्तों ने मुझे जला दिया होता या फन्दे में लटका कर मार दिया होता ... या फिर किसी गाड़ी से फेंक कर अधमरा कर दिया होता ,तब ... हाँ ! तब आप सबकी सम्वेदना जागती ... मोमबत्तियाँ और पोस्टर भी तभी निकलते ... जिन्दा हूँ मैं परन्तु मेरी आत्मा तो मर ही चुकी है । पीड़ा मुझे भी उतनी ही हो रही है ... बल्कि उससे कहीं ज्यादा ... क्योंकि मैं जिन्दा हूँ ,साँस भरते तुम सब मुर्दों के सामने ... जानते हो क्यों ... क्योंकि तुम सब में चेतना का अभाव है ।"
.... निवेदिता श्रीवास्तव "निवी"
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