जब भी धर्म - अधर्म , नीति - अनीति , न्याय - अन्याय अथवा किसी निर्बल पर किसी निर्द्वंद ,निरंकुश के द्वारा किये गए अनाचार के परिणाम का जिक्र भी होता है , एकदम तरल भाव से सहजता से अधिकतर "महाभारत" का ही उदाहरण देते हैं । महाभारत के जिक्र में ही कई भाव एक साथ प्रस्फुटित होते हैं । इस के मूल कारण के रूप में अनेक तथ्य भी दिखाते हैं ।
महाभारत मुझको अपने किसी और रूप से अधिक कर्मफल की अवधारणा से अवमुक्त हो कर "कर्मयोगी" होने के लिए प्रेरित करता हुआ अधिक आकर्षित करता है । कुरुक्षेत्र के रण में युद्धपूर्व अर्जुन ने जब अपने ही आत्मीय स्वजनों को युद्ध के लिए तत्पर पाया ,तो वो युद्ध के बाद होने वाले समूल विनाश का आकलन कर विचलित हो गए। उस समय अर्जुन के युद्ध-विरत होने से उत्पन्न परिस्थितियों की विकटता का आभास पा कर ,कृष्ण ने अर्जुन के मोहबंधन की कड़ियों को विश्रृंखल करने के लिए ,उनको कर्म की प्रमुखता का बोध करवाया और अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया ।
कृष्ण की ये सोच , कि हर व्यक्ति अपने कर्मफल के अनुसार ही जीवन व्यतीत करता है , अकसर सच ही लगती है । एक ही परिवार के , एक ही परिवेश में पले - बढे दो व्यक्ति एकदम ही भिन्न स्तर से जीवन व्यतीत करते हैं - ये बात मात्र आर्थिक अथवा सामाजिक ही नहीं , अपितु मानसिक स्तर में भी लक्षित होती है ।
इन सब बातों से सहमत होते हुए भी मन बावरा अकसर ही बेबस सा एक जिज्ञासा का दंश दे ही देता है ! ये तथाकथित कर्मयोगी होने का ज्ञान क्या सच में सिर्फ अर्जुन के लिए ही था ? क्या अपनों के साथ युद्ध करने का कष्ट सिर्फ अर्जुन को ही था ? उस युद्धक्षेत्र में सिर्फ अर्जुन के सामने ही उसके अपने नहीं थे , अपितु अपनी वचनबद्धता के फलस्वरूप कृष्ण के सामने उनके सारे अपने कौरवों की सेना के अंग बन कर युद्ध के लिए प्रस्तुत थे !
लगता है ,अर्जुन को दिया गया फलाफल की चिंता के बिना कर्म करने का ज्ञान कृष्ण ने स्वयं को भी दिया था। उस एक पल के कृष्ण मुझको तो एक ऐसे शिक्षक की तरह लगते हैं ,जो किसी प्रश्न पर स्वयं भी अटक जाने पर , बिना शिष्य को ये अटकना दर्शाये हुए , विभिन्न सूत्रों की सहायता से उस प्रश्न को स्वयं के लिए भी हल करने को प्रयासरत हो ।
बहरहाल ये ज्ञान चाहे कृष्ण ने अर्जुन को दिया हो अथवा स्वयं अपना ही आत्मबल बढ़ाया हो , पर परिणाम की परवाह किये बिना निर्लिप्त भाव से कर्म करने का सूत्र है बहुत काम का ....... निवेदिता
कर्म किए जा, फल की चिंता मर कर :)
जवाब देंहटाएंगीता का ज्ञान निश्चित रूप से पल पल काम आने वाला सूत्र है...
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर और सहज व्याख्या की है निवेदिता !
जीवन के गूढ़ अर्थों को सरलता से लिख डाला है...
बधाई !!
अनु
सार्थक ज्ञान
जवाब देंहटाएंह्म्म्म्म....
जवाब देंहटाएंबहुत खूब , मंगलकामनाएं आपको !
जवाब देंहटाएंबाप रे!! छोटी बहन ने इतना ज्ञान दे डाला! मगर बहुत ही सार्थक!!
जवाब देंहटाएंपरिणाम की परवाह किये बिना निर्लिप्त भाव से कर्म करने का सूत्र है बहुत काम का
जवाब देंहटाएंबहुत सही .सार यही है ..
सार्थक चिन्तन !
जवाब देंहटाएंSundar chintan
जवाब देंहटाएंGahan chintan
जवाब देंहटाएंआभार आपका :)
जवाब देंहटाएंआभार आपका :)
जवाब देंहटाएंअर्जुन को निमित्त बना कर हमें दिया है ये ज्ञान। अर्जुन की सारी जिज्ञासाएं सामान्य आदमी की जिज्ञासाएं प्रतीत होती हैं। कृष्ण स्वयं तो कर्मयोगी थे ही।
जवाब देंहटाएंजी .... अनुकरणीय चिंतन
जवाब देंहटाएंस्थायित्व का उपदेश है गीता का चिंतन, सबको ही साधना है।
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