ये वक्त भी न ……
बड़ी ही अजीब सी शै है
जब तक चलता रहता है
सच ! कुछ पता नहीं लगने देता
जब कभी ,कहीं भूले से भी
एक नन्हे से लम्हे को भी
अपने कदमों को थाम लेता है
अगले पल ही दम घोटती साँसे
जतला जाती हैं महत्ता
आगे और आगे बस उस अनदेखे से देखे
बदलते और बढ़ते जाते अनजाने समय की
ये वक्त का थमना भी
लगता है जैसे तुमने साथ चलते हुए
अपनी राहें बदल ली हों
और मैं बेबस सी ठिठकी
हटा रहीं हूँ बिना घिरे हुए बादलों को
इन बिनबरसे बादलों की बूँदे
बड़े ही दुलार से जैसे सहेज ली हो
मैंने अपनी ही पलकों तले
और हाँ ……
तलाश रही हूँ अर्थ उस लम्हे का
जब तुमने अपने बढ़ते हुए कदमों को रोक
जतला दिया था मान अपने साथ चलने का
बताओ उदासी का भी कोई कारण होता है क्या .... निवेदिता
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (10-03-2014) को आज की अभिव्यक्ति; चर्चा मंच 1547 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार आपका !
हटाएंकोई कारन नहीं.....सुन्दर रचना ...
जवाब देंहटाएंजतला दिया था मान अपने साथ चलने का
जवाब देंहटाएंबताओ उदासी का भी कोई कारण होता है क्या
..........बहुत सही कहा आपने....बहुत अच्छी रचना दी
निवेदिता जी आपकी कविता ने छायावादी कविता का एहसास कराया बधाई
जवाब देंहटाएंमन के गहरे भाव जैसे शब्द मिल गए ... अभिव्यक्ति हो गए ...
जवाब देंहटाएंसमय रुकता है तो सोचने का समय देता है, सोचना कष्टकर हो जाता है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति को आज कि फटफटिया बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंगहरे भाव...
जवाब देंहटाएं