गुरुवार, 30 मार्च 2023

लघुकथा : छलनी

 


छलनी

अधर अपनी बहकती साँसों को सम्हालता मुस्कुरा पड़ा,"अरे मित्र तुम तो अपने सही स्थान पर ही हो और मैं इतनी बातें सुन-सुन कर कब से परेशान हो रहा हूँ कि तुम्हारे साथ क्या अजूबा हो गया!"

कर्ण भी स्मित बिखेर उठा,"ऐसा भी क्या सुन लिया मित्र ... अच्छा ... अच्छा पहले स्वयं को स्थिर कर लो, तब इत्मीनान से बताना।"

अधर थिरक उठे,"मित्र ! मेरी निद्रा लोगों की फुसफुसाहट से टूटी कि दीवालों के कान होते हैं और मैं डर गया कि यदि यह सच हुआ तो तुमको कितनी परेशानी का सामना करना पड़ेगा ... अभी तो कभी केशों के पीछे जा कर, तो कभी हथेलियों की नन्ही सी गुफ़ा में छुप कर तुम अनजानी ठोकरों और तीखी आवाज़ों से बच जाते हो जबकि दीवाल पर तो कोई सुरक्षित ओट भी नहीं मिलेगी।"

कर्ण ठहाके लगाने लगा,"मेरे लिए परेशान मत होना मित्र ... वो सब उस प्रजाति के कर्ण की बातें कर रहे थे जो अपने साथ छलनी लिये रहते हैं और उनका ध्यान दूसरों की त्रुटियों एवं दूषण पर ही अधिक रहता है।"
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ

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