ज़िन्दगी ने कल यूँ ही चलते चलते रोकी थी मेरी राह
आँखों में डाल आँखें पूछ डाली थी मेरी चाह
ठिठके हुए कदमों से मैंने भी दुधारी शमशीर चलाई
क्या तुम्हें सुनाई नहीं देती किसी की बेबस मासूम कराह
ज़िंदगी कुछ ठिठक कर शर्मिंदा सी होकर मुस्कराई
सुनते सुनते सबकी बन गई हूं कठपुतली रहती हूं बेपरवाह
आज मैं भी कुछ अनसुलझे सवाल अपने ले कर हूँ आई
दामन जब खुद का खींचा जाता तभी क्यों निकलती आह
गुनगुनाती कलियों की चहक से भरी रहती थी अंगनाई
कैसे बदले हालात किसने कर दिया मन को इतना स्याह
हसरतों ने बरबस ही दी एक दुआ और ये आवाज लगाई
बेपरवाह ज़िंदगी सुन इस निवी को तुझसे मुहब्बत है बेपनाह
.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में शुक्रवार 10
जवाब देंहटाएंजनवरी 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
वाह ! क्या बात है ! लाजवाब !! बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंज़िन्दगी ने कल यूँ ही चलते चलते रोकी थी मेरी राह
जवाब देंहटाएंआँखों में डाल आँखें पूछ डाली थी मेरी चाह
ठिठके हुए कदमों से मैंने भी दुधारी शमशीर चलाई
क्या तुम्हें सुनाई नहीं देती किसी की बेबस मासूम कराह
आदरणीया निवेदिता जी, इतनी सुन्दर रचना ... कि इसकी जितनी भी तारीफ करें कम है।
यह है हिन्दी का जादू। हमारी प्यारी हिन्दी....
हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं स्वीकार करें ।।।।।।