बुधवार, 21 मई 2014

सपने भी बेबस नहीं होते ......




कभी  गड्ढों  से  झाँक कर , पाँव में चुभ जाते हैं 
कभी  समतल  पर अटक कर , ठोकर बन जाते हैं 
कभी नन्ही सी किरच बन , पलकों को रुला जाते हैं 
कभी कनी - कनी जुड़ कर , चट्टान  भी बन जाते हैं 
कभी रेशा - रेशा बिखर कर , पर्वत  भी टूट जाते हैं 
आकार बदल जाता है , हर अंदाज़ भी बदल जाता है 
कभी इंसान नहीं बन सकते , पत्थर तो बस पत्थर हैं  
शायद इसीलिये ठोकरों में ही , ठोकर बन बसे रहते हैं 
सपने भी बेबस नहीं होते ,दिन का क्या सब बदलते हैं 
सिमटते हुए बिखर जाते हैं , बिखरे हुए सिमट जाते हैं 
बिखराव में भी बिखर कर ,यूँ ही सिमटना भूल जाते हैं 
मंदिर में पहुँच कर , पत्थर में रचे गये भगवान ही तो 
हम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं ...... निवेदिता 

14 टिप्‍पणियां:

  1. सिमटते हुए बिखर जाते हैं , बिखरे हुए सिमट जाते हैं
    बिखराव में भी बिखर कर ,यूँ ही सिमटना भूल जाते हैं

    बेतरतीब से पर सधे हुए ..... शायद यही विशेषता है इनकी

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (22-05-2014) को अच्छे दिन (चर्चा-1620) पर भी है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. "मंदिर में पहुँच कर , पत्थर में रचे गये भगवान ही तो ... हम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं ...."

    क्या बात है ... जय हो |

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  4. बहुत शानदार रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें |

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  5. मंदिर में पहुँच कर , पत्थर में रचे गये भगवान ही तो
    हम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं ....
    क्या बात है .......बहुत ही उम्दा

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  6. मंदिर में पहुँच कर , पत्थर में रचे गये भगवान ही तो
    हम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं...बहुत सुन्दर..

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  7. हम माटी के पुतलों से , अपना पूजन करवा जाते हैं
    वाह !!

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  8. कभी इंसान नहीं बन सकते , पत्थर तो बस पत्थर हैं
    शायद इसीलिये ठोकरों में ही , ठोकर बन बसे रहते हैं

    बहुत ही सुन्दर और गहन बात !!

    सस्नेह
    अनु

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  9. बहुत ही सुंदर गहन भावाभिव्यक्ति...दी

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