शायद मेरी सोच ही कुछ अजीब है तभी तो जब सब पेड़ पर लगे हुए फलों को देख कर मुग्ध होते हैं ,मैं उस पेड़ के नीचे गिरे हुए मंजीरों को देखती रह जाती हूँ ! उन गिरे हुए मंजीरों का जीवन चक्र तो वृक्ष की शाखा का साथ छोड़ते ही पूरा हो जाता है बस एक औपचारिकता सी रह जाती है उनके अस्तित्व की समाप्ति की । कभी बागबां खुद ही अपनी बगिया के सौन्दर्य में अवरोधक बने उन झरे हुए मंजीरों को हटा देता है ,तो कभी ऋतुयें इस काम को अपनी सहज मंथर गति से कर देती हैं । बस यही लगता है कि उनका जीवन - चक्र अनदेखा या कहूँ अवांछित बना रह कर ही सम्पूर्ण हो गया ।
एक दूसरी सोच भी दिल - दिमाग को झकझोर कर राह रोकती सी है - - - - - अगर वो मंजीर न झरे होते और सब अपना पोषण पा सकते तो उस पेड़ पर पत्तियों से अधिक फल लगे होते । हाँ ! ये भी हो सकता है कि वो मंजीर टिकोरे बन कर भी तेज हवा के झोंकों का सामना करने में असमर्थ हो झर जाते ,पर तब भी कुछ साँसें तो वो भी ले लेते !
एक स्वार्थी सी सोच भी जग जाती है कि अगर सारी मंजीरें अपना क्रमिक विकास करते हुए पूर्ण यौवन प्राप्त कर भी लेती तो उस बिचारे वृक्ष का क्या होता ? क्या वो उनका तेज या ये कहूँ उनका भार सह पाता ? शायद उन परिपक्व फलों के भार का वहन करने में असमर्थ हो उसकी डालियाँ टूट जातीं ! परन्तु सिर्फ उन डालियों का अस्तित्व बना रहे इसके लिए उन मासूम से मंजीरों को असमय काल - कवलित होने की सजा दी जाये !
-निवेदिता
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज रविवार (21-04-2013) के अब और नहीं सहेंगे : चर्चा मंच 1221 (मयंक का कोना) पर भी होगी!
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ!
सूचनार्थ...सादर!
आभार !!!
हटाएंआपके मन की इस पीड़ा को समझती हूँ
जवाब देंहटाएंआपने लिखा....हमने पढ़ा
जवाब देंहटाएंऔर लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 22/04/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
धन्यवाद!
आभार !!!
हटाएंपता नहीं कितनी मंजरियां इसी तरह अपना अस्तित्व खो देती हैं निवेदिता..
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंhttp://guzarish6688.blogspot.in/2012/12/blog-post_31.html
दर्द है जीवन का जो किसी न किसी रूप में छलक आया है ..
जवाब देंहटाएंयह सब देख-सुन कर हृदय विदीर्ण हो जाता है।
जवाब देंहटाएंसृष्टि ने स्वयं संतुलन की कोई व्यवस्था लागू की है... और यह हमें समझना है.. :)
जवाब देंहटाएंसत्य है !
जवाब देंहटाएंप्रकृति प्राकृतिक राह चुनती है
हम अपने गणित के हिसाब से !
थोड़ा अलग सी सोच. अच्छा लगा पढ़ के.
जवाब देंहटाएंबहुत गहन और सार्थक चिंतन...
जवाब देंहटाएंसुंदर आलेख ,इसी तरह संतुलन बनाती है प्रकृति......
जवाब देंहटाएंअगर प्रकृति पर भरोषा करें तो हमें मानना पड़ेगा कि उन मन्जरियों को समय के पूर्व गिरने के लिए ही बनाया गया था
जवाब देंहटाएंlatest post सजा कैसा हो ?
latest post तुम अनन्त
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गहन सोच ....सार्थक चिंतन
जवाब देंहटाएंगहन अभिव्यक्ति ...!!पता नहीं किस रूप में जीवन हमारे सामने आता है ....!!
जवाब देंहटाएंप्रकृति नयेपन से रोचकता बनाये रखती है, पुराने को साथ छोड़ उस नये का स्वागत करना ही होगा।
जवाब देंहटाएंएक पीड़ा है शब्दों में ........
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