सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

श्रुतिकीर्ति

 श्रुतिकीर्ति


अहा! इन्ही खुशियों भरे पलों की प्रतीक्षा थी हम सब को ... हमारी अयोध्या के प्रत्येक कण को। दिल करता है इन पलों के प्रत्येक अंश को जी भर देखने, संजो लेने का परन्तु इस को कर पाने में मेरी ये दो आँखें असमर्थ हो रही हैं, तो बस पूरे शरीर को आँखें बना लूँ!


भैया राम का राजतिलक, साथ में सीता दीदी अपने तीनों देवरों के साथ ... कितना मनोहर है ये सब। 

अरे ये उधर से कैसी फुसफुसाहट आ रही है ... रुको सुनूँ तो क्या बात है! राज परिवार का अर्थ सिर्फ राजसी शान का उपभोग ही नहीं है, अपितु सबका मन जानना भी है। प्रत्येक पल सजग रहना और जानना होता है सबके मन को ... और पता है इस तरह की फुसफुसाहट बिना बोले ही बहुत कुछ बता देती है।


इन सबकी बातों में मेरा और शत्रुघ्न का नाम बार बार आ रहा है ... ऐसा क्या हो सकता है! अब तो उत्सुकता और भी बढ़ गयी है ... क्योंकि ये दो नाम तो कभी इस तरह बोले ही नहीं जाते।


उफ्फ्फ .... क्या क्या सोचते हैं लोग ... पर मैं क्या करूँ ... इन बातों को सुनकर मेरी तो हँसी ही नहीं थम रही ... 


असल में उनकी चर्चा का विषय थी मेरी उपेक्षित स्थिति। देखा जाए तो गलत वो भी नहीं थे। सीता दीदी भैया राम के साथ वन गमन करके पूज्य हो गयी थी। मांडवी दीदी भरत भैया के अयोध्या में रहकर ही सन्यासी जीवन मे साथ दे प्रशंसनीय थीं। उर्मिला दीदी भी कर्मवीर का मान पा रही थीं कि लक्ष्मण भैया वन में राम भैया के साथ हैं तो वो यहाँ राजमहल में लक्ष्मण भैया के कर्मठ रूप की प्रतिमूर्ति बन गयी थी। अब बाकी बची मैं जिसकी कहीं भी चर्चा अथवा उल्लेख ही नहीं होता ! 


यद्यपि शत्रुघ्न और मुझे दोनों को ही पर्याप्त स्नेह और मान दोनों ही प्राप्य था, तथापि आमजन यही समझता कि हमें उपेक्षित किया जा रहा है ! 


किसी भी परिवार में, चाहे वो आम व्यक्ति का हो अथवा विशिष्ट का, एक सी तुला में हर किसी को कभी नहीं नापा जा सकता और चाहिये भी नहीं। हर व्यक्ति की अपनी प्रकृतिजन्य विशिष्टता होती है। किसी को परिवार में दरकती दरारें और उन दरारों को पूरित करने की आवश्यकता दिख जाती है तो किसी में सबके सामने आकर दायित्वों और उसके किसी भी तरह के परिणाम की जिम्मेदारी लेने की सजगता रहती है।


ऐसा तो सम्भव ही नहीं कि एक ही व्यक्ति प्रत्येक स्थान पर स्वयं ही पहुँच कर समाधान कर सके। परिवार नाम की संस्था का औचित्य ही यही है कि सब सहअस्तित्व के भाव से अपना योगदान दें।


यह सर्वभौम सत्य है कि राजा तो ज्येष्ठ पुत्र ही हो सकता है। इसका कारण मात्र अंधानुकरण नहीं अपितु तार्किक है। सिंहासीन अनुज के समक्ष यदि ज्येष्ठ आज्ञापालन के भाव से खड़ा होगा तब अनुज को भी विचित्र परिस्थिति में डाल देगा। सलाह तो बड़ा हो या छोटा ,कोई भी दे सकता है परन्तु आदेश देते तो बड़े ही शोभा देते हैं। 


हमारे परिवार में कार्य विभाजन ही हुआ था ... इस तरह से भैया राम और सीता दीदी ने सबसे दुष्कर कार्य अपने लिये चुना था, बहाना जरूर माता कैकेयी बनी परन्तु भैया राम के मर्यादा पुरुषोत्तम बनने में माता का अपने वरदानों को कार्य रूप में परिणित करना था। सुदूर वन्य प्रदेश के संभावित शत्रुओं का समूल नाश करके भैया ने अयोध्या को एक नई गरिमा दी। 


यदि हम ये सोचें कि प्रत्येक व्यक्ति का नाम होना चाहिये तब हमारी सेना के प्रत्येक सैनिक का नाम सबसे पहले होना चाहिये ... परन्तु क्या यह सम्भव है? जब सेना नष्ट हो जाती है तब राजा अकेले युद्ध पर नहीं जाता ,वह सबसे पहले अपना सैन्यबल बढ़ाता है तब युद्ध करता है।


मांडवी दीदी हों अथवा उर्मिला दीदी या फिर स्वयं मैं ... हम सब कहीं भी उपेक्षित नहीं हुए। हमने तो अपने दायित्वों का निर्वहन किया और परिवार के लिये नींव का कार्य किया। 

सबसे बड़ा और मूल प्रश्न यदि हम उपेक्षित होते तब क्या कोई भी हमारा नाम तक जान सकता?


प्रत्येक बिंदु के मिलने से ही किसी भी आकृति का निर्माण होता है। इस तथ्य को सबको समझना और समझाना पड़ेगा अन्यथा वनवास पर भेजे जाने की प्रक्रिया सतत चलती ही रहेगी और परिवार छोटे छोटे टुकड़ों में बँट कर नष्ट हो जाएगा।

निवेदिता 'निवी'

लखनऊ

2 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक और महत्वपूर्ण विवेचना। महत्व के लिए तो आमजन तरसता है। कल्याणकारी मनुष्य इसके लिए नहीं कार्य करते। दीपक प्रशंसा के लिए नहीं जलता, सूर्य सराहे जाने के लिए नहीं उदय होता। वह उनका कार्य है, स्वभाव है, कर्म है, कर्त्तव्य है। जिसके लिए विधाता ने उन्हें सृजा है।

    जवाब देंहटाएं