लघुकथा : दूसरा दीया
दिवी दीप प्रज्ज्वलित करती हुई 'ॐ नमः शिवाय' गुनगुनाती जा रही थी। पास से गुजरते हुए अंकित ने हँसते हुए टोका,"क्या यार कभी तो भोलेनाथ को भी आराम करने दिया करो, जब देखो तब उनको पुकारती रहती हो ... चाय छानते हुए भी ॐ नमः शिवाय और छलक गयी बूँद को साफ़ करते हुए भी ॐ नमः शिवाय ... घर का ताला बन्द करना हो या खोलना ... यहाँ तक कि गेट की घण्टी बजने पर भी, आनेवाले का नाम पूछने या अपने पहुँचने के लिए "आ रही हूँ" बोलने की जगह भी ॐ नमः शिवाय ही बोलती हो। तुम उनको पुकारोगी नहीं तो क्या वो तुमको देखेंगे नहीं या ध्यान नहीं रखेंगे!"
दिवी की उपस्थिति में जैसे एक दिव्यता खिल गयी,"तुम सब सुन सको सिर्फ़ उतना ही नहीं, मेरी तो साँसों में भी भोलेनाथ की ही अरदास चलती है ... मेरी जाती हुई साँस भी आनेवाली साँस को ॐ नमः शिवाय ही बोल कर स्थान देती है। ऐसा नहीं है कि मेरी पुकार पर ही वो आएंगे, वो तो सदैव हम सभी के साथ हैं, बस हमारे नाम जाप करने से मन भी सात्विक रहता है जैसे एक दिये के नीचे का अंधेरा मिटाना हो तो उसके पास दूसरा दिया रख दो, दोनों के नीचे से कालिमा भाग जाती है ... बस ॐ नमः शिवाय यही दूसरा दिया हैं!"
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
लखनऊ
दूसरा दिया, सुंदर दर्शन।
जवाब देंहटाएंअंतर्मन में दीप प्रज्वलित करती बहुत सुंदर सृजन 🙏
जवाब देंहटाएंविरले ही लोग दिवि सरीखे भगवतस्वरण में आकंठ लीन रहते हैं | भीतर की ये दिव्यता उन्हें औरों से विशेष बनाती है | भावपूर्ण सृजन |
जवाब देंहटाएं--******भगवत स्मरण
जवाब देंहटाएंमन में भक्ति भाव जगाती सुन्दर लघुकथा।
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