तन के साथ ही मानो साँसें भी थक चलीं थीं।डूबती सी निगाहों ने ईश्वर को आवाज़ दी,"तेरे इस जहाँ की रवायतों से मन भर कर, ऊब चुका है। अपना वो जहाँ दिखा दे अब तो।"
सन्नाटे को बेधती सी दूसरी आवाज़ कंपकपा उठी,"ऐसा क्यों कह रहे हो ... अभी तो बहुत कुछ है करने को, बहुत से लम्हे आनेवाले हैं जीने को ... "
लड़खड़ाती सी आवाज़ लरज़ गई,"मैं तो अपने लिए कह रहा हूँ। "
"पूरी ईमानदारी से अपने मन से पूछो कि तुम्हारे बाद ये लम्हे क्या सच में मुझको देख पाएंगे",निगाहें निगाहों का रास्ता रोकने को चंचल हो उठी थीं,"नयनों की ज्योति ही उनको बहुत कुछ दिखाती है वरना तो काला चश्मा ही रह जाता है।"
वेदना की भी मानो रूह बिलख पड़ी,"पर जब यही आँखें नहीं होती हैं तो ये काला चश्मा निरर्थक सा उधर लुढ़कता रहता है। आवश्यक तो दोनों का साथ रहना ही है परन्तु प्रकृति की अनिवार्यता के सामने आने पर दूसरे को भी परम गति जल्दी मिल जानी चाहिए!"
निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
सुन्दर... दार्शनिक प्रस्तुति निवेदिता जी!
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