बुधवार, 11 मई 2022

बिन्दु बिन्दु कर झरती जाये ...



बिन्दु बिन्दु कर झरती जाये 

यात्रा ये करती जाये


निरी अंधेरी इस गुफ़ा मे

सूर्य किरण सी दिखती है

कंकड़ पत्थर चट्टानों से 

राह नयी तू गढ़ती है

सर्पीली इस पगडण्डी से

प्रपात बनी उमगती है 

बिन्दु बिन्दु ... 


कन्दराओं से बहती निकल 

सूनि वीथि तुझे बुलाये

विकल विहग की आये पुकार

रोक रहे बाँहे फैलाये 

लिटा गोद में सिर सहलाती

थपकी दे लोरी गाये

बिन्दु बिन्दु  ...


गर्भ 'तेरे जब मैं आ पाई

प्यार सदा तुझ से पाया

अपनी सन्तति को जनम दिया

रूप तेरा मैंने पाया 

तुझसे जो मैं बन निकली थी 

गंगा सागर हम आये 

बिन्दु बिन्दु ....

.... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'

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