शृंगार चिन्ह
शृंगार चिन्ह के औचित्य पर मनन करने से भी प्रबल प्रश्न मेरे मन में यही उठता है कि शृंगार है क्या ... क्या मात्र तन को नानाविध सज्ज करना ही शृंगार है या मन को सज्ज करना भी ! बहुधा हम मन को भूल ही जाते हैं और विविध सामाजिक और पारिवारिक परम्पराओं की ही टीका करते रह जाते हैं । बस इसीलिये जो बात सामान्यतः बाद के लिये छोड़ देते हैं ,मैं उसको सबसे पहले ले कर आना चाहूँगी । चेतना का बोध होते ही सबसे पहले मन को शृंगारित करना चाहिए । मनन की धारा सन्तुलित कर के आत्मबल को दृढ़ करना चाहिए ,साथ ही वाणी पर संयम भी हो । वाणी पर संयम का अर्थ मात्र इतना ही है शब्दों का चयन और बोलने का तरीका कटु न हो । मन के इस सौंदर्य के साथ हम शृंगार चिन्ह की तार्किकता पर मनन करें तो औरों के लिये भी स्वीकार्य होगा ।
तथाकथित प्रचलित सोलह शृंगार की बात करूँ तो यह एक आदत की तरह सोच में शामिल हो गयी है ,जो विभिन्न अवसरों पर मुखरित हो उठता है और शकुन - अपशकुन के मकड़जाल में फँसाये रखता है ।
सनातन काल से स्त्री घरों के अन्दर ही रहती थी और परिवार की प्रतिष्ठा की द्योतक भी समझी जाती थी । इसी क्रम में पर्दा प्रथा का चलन था । स्त्रियों के साज - शृंगार को भी इसी से जोड़ा जाता था । जितना अधिक सम्पन्न घर ,उतने ही अधिक आभूषणों और शृंगार से सज्जित होगी उस घर की स्त्री । साथी की मृत्यु के बाद ,स्त्री के लिये शृंगार वर्जित करने के पीछे पुरुषवादी सोच का मूल कारण उसको अधिकारहीन अनुभव करवाना ही रहता होगा । मन टूटा रहेगा तो वो अधिकारों के विषय में सोच ही नहीं पायेगी । परिवार की शेष स्त्रियों ने इस सोच को एक आदत और स्वयं को महत्तर समझने की लालसा में अपनाया होगा ।
इन शृंगार चिन्हों को धारण करने के पीछे स्वयं के आकर्षक दिखने से मिलनेवाला आत्मविश्वास भी एक कारण है । इनके पीछे कुछ वैज्ञानिक कारण भी हैं । परन्तु सभी कारणों के मूल में पुरूषप्रधान समाज की स्त्री को कमतर और वस्तु मानने की सोच ही अधिक प्रबल है ।
पति के न रहने पर शृंगार न करने देना सर्वथा अमानवीय कृत्य है । वह कैसे रहना चाहती है ,यह निर्णय स्वयं स्त्री का होना चाहिए । बिन्दी लगाना है या नहीं ,लाल लगानी है या काली ,चूड़ी काँच की पहननी है या प्लास्टिक की ,मेहंदी ,आलता ,आभूषण प्रयोग करना है या नहीं यह निश्चित करने में उस स्त्री के मन की सुननी चाहिए । जो और जैसे करने से उस के मन को शान्ति मिले वही करना चाहिए ।
परम्पराओं को मात्र परम्परा न मान कर जीवित रहने में सहायक की तरह ही अपनाना चाहिए ,न कि किसी के मन को और भी तोड़ने के लिये और तन से ज्यादा मन के शृंगार के प्रति सजग और सन्नद्ध रहना चाहिए .... निवेदिता श्रीवास्तव 'निवी'
बहुत सार्थक लघु कथा।
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